मिशन भाइसाहेब : दू पड़ाव (संस्मरण) - डॉ. कमल मोहन चुन्नू


पहिल पड़ाव : छाड़इत निकट नयन बह नीरे

            साहित्यमे हमर प्रवेश भेल नाटक बाटे। प्रारम्भ हम नाटकेसँ कयल। पटनाक मैथिली रंगमंचसँ। प्रायः 1990-91 सँ। अभिनयक रुचि अवश्य छल मुदा से प्रधान नहि। नाटकक अन्य पार्श्व-सहयोगी तत्वसभ आकर्षित करैत छल। ताहूमे एकर संगीतपक्ष सर्वाधिक। नाटकक साहित्य आ संगीत दुनूक अपन-अपन भाषा छैक। एहि दुनूक अपन-अपन सौन्दर्य-प्रभावादि आ संगहि एहि दुनूक अंतर्सम्बन्ध हमरा बेर-बेर आकर्षित करैत छल। ग’र लगने किछु काजो करैत जाइ। गोटपगरा लोक प्रशंसो करथि। तहिया पटनाक मैथिलीओ रंगमंच बेस सक्रिय छल। एकर प्रदर्शन-क्रममे निरन्तरता छलैक। मैथिली रंगमंच आ एकर गतिविधिक प्रमुख केन्द्र विद्यापति भवन होइत छल। एतय रंगकर्मीलोकनिक जुटान नियमित भेल करय। हमहूँ पहुँचय लगलहुँ। मंचनमे प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग करय लगलहुँ। आ एहिये मंचनसभक दर्शक-दीर्घामे मैथिलीक समस्त साहित्यकारलोकनिकेँ देखय लगलहुँ।

            श्री शरदिन्दु चौधरीजीसँ हमर सम्पर्क भेल। ओ ‘समय-साल’सँ हमरा जोडि़ लेलाह। यद्यपि समय-साल लेल हम बड़ बेसी नहि लिखलहुँ मुदा एकर उपलब्धि ई भेल जे नाटकसँ इतर एकटा नव साहित्यिक बाट देखबा जोग भेल। विभिन्न आयोजनसभमे डोरियाए लगलहुँ। ई तकरे परिणाम छल जे पंडितजी (गोविन्दबाबू), मायाबाबू, भाइसाहेबलोकनिकेँ चिन्हि सकलियनि। मुदा ओ लोकनि हमरा नहि चिन्हथि। किएक चिन्हितथि? कोना चिन्हितथि? हम लिखब प्रारम्भ कयल विलम्ब सँ, मुदा जहिया सँ हम लिखय लगलहुँ, लगैए तहियेसँ ओ लोकनि नवतुरियाकेँ पढ़ब छोडि़ देने रहथि। ‘आरंभ’केँ पढ़ल करी आ तहियेसँ भाइसाहेबक सम्पादकीय चमत्कार केँ देखैत अबैत रही। कालक्रमे हुनक कथा-संग्रह आ आलोचनासभ पढि़ हुनक विराटकाय व्यक्तित्वक भाँज लागल। तहियेसँ एकटा लौल सन लागल रहल जे भाइसाहेब जँ हमरो चिन्हितथि, हमरो टोकितथि। यद्यपि ई लौल नहिये पूरल से फराक बात मुदा तकर बाद लगभग सभ आयोजनमे हम हुनका देखी। हुनकासँ अरबैध क’ जान-पहिचान करब से तहिया ने ततेक ऊहि छल आ ने सेहन्ता। भाइसाहेब जखन बेसीकाल दुखित रहय लगलाह तखन जरूरे अपन एहि ऊहि आ सेहन्ता पर तामस भेल करय आ अपन एहि विचारकेँ परिष्कार करैत ई निर्णय केलहुँ जे हिनकालोकनि सन साहित्यकारक ओतय जयबाक चाही। हिनकालोकनिसँ साहित्यक्षेत्रीय कार्यानुभव लेबाक चाही। महत्पुरुषक अनुभव जियान नहि जाइत छैक, बेर पर काज अबैत छैक। हँ, हुनक विचार-सरोकारादिसँ हम सहमत होइ कि नहि से त’ हमरे हाथ मे अछि। कएक गोटेसँ अपन परिचिति बढ़बो कयल मुदा भाइसाहेबक डेरा कहाँदन महेन्द्रू मे छलनि। महेन्द्रू नामे सूनि अबूह लागय। कएक गोटेकेँ संग ल’ चलय लेल कहलियनि मुदा बात बनल नहि। हमहूँ अबधारि लेने रही जे आब सभे-समारोहक जान-पहिचानसँ काज चलायब।
            
          आ से सएह भेल। वर्षक वर्ष एहिना बीतैत चलि गेल। भाइसाहेबक डम्हाएल काया धीरे-धीरे पाकल आम सन भेल जा रहल छलनि, डारि छोडि़ क’ खसि पड़बा लेल आतुर। एक दिन कोना-ने-कोना शेखर प्रकाशन (श्री शरदू भैयाक कार्यालय, न्यू मार्केट, पटना जंक्शन) गेलहुँ। प्रायः तहिया 19 जून 2015 छलैक। श्री शरदू भैया चर्च कयल जे भाइसाहेब बेस दुखित छथि आ पटनेमे छथि। हमर मोन व्यग्र भेल। सहमत भेलहुँ जे भाइसाहेब लग कहियो चलल जाय। तहिये श्री हरेकृष्ण झा लग सेहो गेल रही आ ई समाचार सुनौने रहियनि। हुनको जेना उद्वेग ल’ लेलकनि! कहलनि- ‘हमहूँ चलब। शीघ्रे योजना बनय।’ संयोग एहेन जे हरेकृष्ण भैया अपन पी-ओ- भगिनीकेँ अरियातय 24 जनू 2015 क’ जंक्शन आयल रहथि। हमरा फोन केलनि आ भाइसाहेबक ओतय चलय लेल कहलनि। हमहूँ तैयार भ’ गेलहुँ आ विदा भ’ गेलहुँ ‘मिशन भाइसाहेब’पर।
            
         रस्तेमे हरेकृष्ण भैयाकेँ साफ-साफ कहि देलियनि जे हमरा भाइसाहेबक डेरा नहि देखल अछि। भैयाकेँ कहाँदन दस वर्षसँ बेसीए भेल छलनि एमहर अयला। ‘सावित्री कुटीर, घग्घा घाट’, एतबेटा मोन छलनि। तथापि ओ भाइसाहेबक डेरा ताकिए लेलनि। हम दुनू गोटे चारि बजेक लगीच पहुँचलहुँ। ई बूझल छल जे भाइसाहेबक संग हुनक बेटी रूपा रहैत छथिन कारण मैथिली लिटरेचर फेस्टिवल (2015)मे सेहो हुनका देखने छलहुँ।

            रौद बेस छलैक। हरेकृष्ण भैया अपसियाँत भ’ गेल रहथि। बरण्डा पर केओ नहि छल। घरक केवाड़ खूजल छल मुदा घर छल अन्हार। हरेकृष्ण भैया एकहि संग गेटो खटखटौलनि आ हुलकियो मारलनि। घरमे आन केओ नहि छल मुदा भाइसाहेब चौकीपर चितंग भेल आ दुनू हाथकेँ अपन छाती पर गेटने सूतल रहथि। गेटक खट-खटसँ रूपा बहरेलीह। हुनका लेल हम दुनू गोटे अनचिन्हार छलहुँ। भैया परिचय देलथिन। लगले ओ घर ल’ गेली, इजोत केलनि आ हमसभ बैसलहुँ। लगले सूतल रहथि भाइसाहेब ते ँ भैया जगेबाक हिम्मति नहि क’ रहल छलाह जे हुनका अशौकर्य ने होनि। मुदा रूपा भाइसाहेबकेँ जगा देलथिन आ उठा क’ बैसा सेहो देलथिन ई कहि जे- ‘केओ भे ँट करय अबैत छनि त’ पापा (भाइसाहेब)केँ बड़ आनन्द होइत छनि। मुदा आब लोक अबिते कहाँ छनि!’
            भाइसाहेब उठला। बड़ ठेकना क’ हरेकृष्ण भैयाकेँ देखलनि। भैया कएक बेर पुछलथिन जे हमरा चिन्हलहुँ। भाइसाहेब अत्यंत गम्भीर बनल प्रायः अन्वेषण क’ रहल छलाह। रूपा चश्मा आनि क’ देलथिन। खूब अहिया क’ एहि बेर देखलनि आ गम्भीरता भंग सन भेलनि। हरेकृष्ण भैयाक ताबड़तोड़ प्रश्न छल- ‘कहू के छी हम?’ कनेकाल बाद भाइसाहेब एकदम स्पष्ट शब्दमे कहलनि- ‘अहाँ छी हरेकृष्ण।’ आ से कहि हँसय लगलाह। खूबे हँसलाह। हँसीमे बेर-बेर दुनू कनहा आ पेट कम्पायमान होइत रहलनि आ हमहूँ दुनू गोटे हुनक हँसीक सुरमिलानी करैत रहलहुँ। भाइसाहेबक ई अतल सँ उठैत दीर्घकाय हँसीसँ रूपाकेँ बुझबा जोग भ’ गेल छलनि जे हरेकृष्ण झा नामक ई व्यक्ति कोनो आजी-गुजी नहि अपितु हुनक पिताक खासमखासे लोकमे सँ छथि कारण छह मासमे ककरहु संग अपन पिताक हँसी, एहन हँसी आ सेहो एतेक हँसी रूपा नहि देखने छलीह।

            तीनू गोटे लेल ब्रेड-बिस्कुटक प्लेट आयल। आमक शरबत आयल। भाइसाहेब त’ मात्र संग देलनि। भोजन अत्यल्प भ’ गेल छलनि। चाहो नहि रुचैत छलनि। मात्र मुँहे ऐंठेलाह। रूपाक आग्रह (जिद्द बेसी उचित) सेहो अनठा देथि। भाइसाहेबकेँ बेसी बाजि नहि होइत छलनि। एकदिसाहे हरेकृष्ण भैया बाजथि। पुरना-पुरना संस्मरणसभक चर्च क’ ओ भाइसाहेबक स्मृति जाँचथि। सभटा स्मरणे छलनि। बीच-बीचमे हरेकृष्णो भैया रूपासँ सेहो कुशल-छेम करथि। पिताक संग रहि रूपा साहित्यकारसभक मारिते रास किरदानी बूझि गेल छलीह। रूपाक कचोट छलनि जे हुनक पिता (भाइसाहेब) अपन सम्पूर्ण जीवन एहि साहित्यकेँ देलनि, से तेना देलनि जे अपन अन्यान्य सभटा काज बिसरि गेलाह। जाधरि स्वस्थ रहथि ताधरि चारूकात लोके-लोक छलनि, खयबाक लेल लोक, पीबाक लेल लोक आ लेबाक लेल लोक। मुदा जखन दुखित पडि़ ओछाओन ध’ लेलनि त’ आब केओ नहि अबैत छनि। एक दिससँ सभ छोडि़ देलकनि।

            रूपाक बात हमरा ने त’ उलहन लागि रहल छल आ ने उपराग। रोख सेहो नहि। कारण, हम ने हुनक पिताक कहियो किछु खेने रही, ने पीने रही आ ने किछु लेने रही। मुदा रूपाक गप सत्यक बड़ लगीच लागि रहल छल। अपन पित्तीलोकनिक गमैया किरदानीक सेहो बड़ कष्टक संग वर्णन कयलनि। कहाँदन गाम परहुक सभटा जमीन ओ लोकनि बेचने जाइत रहथि। कोर्टमे केस भेलापर ई कने थम्हल अछि। गामक पुरना घर चोर-जुआरी-नशेरीसभक अड्डा भ’ गेल अछि। रूपाक पीसी रत्ना चौधरी हुनका संग दैत छथिन।

            मैथिली साहित्यकेँ उनटन करबामे भाइसाहेब तेना ने एकदिसाह अपसियाँत रहला जे गाम-घरक चर-चित एकदम्मे बिसरि गेलाह। गाम (पैतृक गाम वाजितपुर) प्रायः छुटैत चल गेलनि। गामक जथा-जमीनबला लोककेँ गाम जतेक छुटैत जाय से गाममे रहनिहार लोकक लेल कोनहु मनोवांछित वरदान सँ कम हर्षक विषय नहि। गमैया लोक लेल बहरिया लोक ‘मुल्ला’ आ कि ‘सर्वजन सुलभ कोष’ सँ बेसी किछुओ नहि। गामक लोक लेल आर्थिके उपलब्धिक एकमात्र महत्व। बड़ पैघ विद्वान कि साहित्यकार कि संस्कृतिकर्मी छथि त’ रहथु अपना लेल। गामक परिवेश ओ परिदृश्यमे रत्ती भरि गर्व नहि, मिसियो भरि मोजर नहि। आन ठामक बात त’ नहि कहब मुदा मिथिला मे आ बिहार मे ई स्थिति सर्वत्र समाने अछि।

            भाइसाहेबक मोन बदलय लेल आ वातावरणकेँ हल्लुक करबाक लेल हरेकृष्ण भैया हमरा द’ भाइसाहेब सँ पुछलनि- ‘ई के छथि?’ भाइसाहेबकेँ नहि चिन्हाइत रहियनि हम। तथापि कोशिश मे लागल रहथि। परिणाम त’ हमरा बुझले छल, ते ँ हम निश्चिन्त रही। भाइसाहेबक प्रतिप्रश्न भेलनि- के छथि ई?
            हरेकृष्ण भैया कहलथिन- ‘आइ अहाँ घोपचट मे धरा गेलहुँ। अहाँ हरदा बाजि दिय’ त’ हम कहि देब।’
            हरेकृष्ण भैयाक नितांत खाँटी मैथिलीक शब्द पर भाइसाहेब फेर ओहिना हँसथि, पेट आ कनहा कुदबैत। कनेकाल बाद भाइसाहेब फेर पुछलनि- के छथि ई?
            एहि बेर हरेकृष्ण भैया कहलनि- ‘अहाँ हरदा बाजि गेलहुँ?’
            - हँ।
            - पक्का?
            - पक्का।
            तखन ओ ‘बाबू’ लगा क’ हमर नाम कहलथिन आ हमर नान्हिएटा परिचयकेँ बढ़ा-चढ़ा क’ कहैत ओ कहलथिन जे ई ‘घर-बाहर’क सम्पादन-मण्डलमे सेहो छथि। भाइसाहेबकेँ उत्सुकता भेलनि। हम चट द’ ‘घर-बाहर’क टटका अंक (अप्रैल-जून 2015) बढ़ा देलियनि। बड़ हियासि क’ ओ देखलनि ओकरा। वासुकीबाबू (‘घर-बाहर’क सम्पादक डा- वासुकीनाथ झा)क हाल-चाल पुछलनि, चेतना समिति आ विद्यापति भवनक जिज्ञासा केलनि। रूपा कहने रहथि जे भाइसाहेब किछु पढ़य नहि चाहैत छथि, मुदा ओ ‘घर-बाहर’क सभटा सामग्रीकेँ बेरा-बेरी देखलनि। सरसराइत नजरिसँ नहि, थम्हि-थम्हि क’, मूड़ी डोला-डोला क’। हमहूँ एहि क्षणक मारिते रास फोटो खीचब नहि बिसरल रही।
            गपेशपमे बहैत रहलाह भाइसाहेब। बड़ी काल धरि बैसले रहथि। रूपा आबि क’ सुता देलथिन। सुतिते ओ कहरय लागथि। ताहि पर हरेकृष्ण भैया पुछलथिन-
            - भाइसाहेब! की होइए?
            - नै किछु।
            - तखन एना किएक कहरै छी?
            - -------
            भाइसाहेब चुप्पे रहलाह। हरेकृष्ण भैया पुनः पुछलथिन- तखन एना किएक कहरै छी?
            भाइसाहेब कहलाह- ई कह’ जोग बात नहि छैक।
            ई नान्हि टा वाक्यांश अपन प्रभाव मे ‘घाव करे गम्भीर’ सन छल। सम्पूर्ण जीवनक संघनित अनुभवक अत्यंत संक्षिप्त मुदा मारुक प्रस्तुति। भैया चुप भ’ गेल छलाह। मुदा भाइसाहेब एकटक भैयाकेँ निहारैत रहथि, निःशब्द, निःस्वार्थ। पुनः दम सम्हारि क’ भैया भाइसाहेबकेँ ‘इनवॉल्ब’ करय लेल पुरना प्रश्नसभक संग किछु नवको प्रश्नसभ मिज्झर कयल-
            - ‘हम के छी? ई के छथि? आरंभ मे हमर की सभ छपने रही?’ आदि।
            भाइसाहेब नितान्त बालमति सन एहि समस्त प्रश्नक उत्तर देलनि। भैया ‘आरंभ’केँ पुनः आरम्भ करबाक बात रखलथिन। ताहि पर भाइसाहेब कहलथिन- ‘के करत?’
            भैया कहलनि- ‘अहाँ। आर के?’
            भाइसाहेब पुनः हँसलाह। ई हँसी हुनक अपन लाचार परिस्थितिक मादे छल। हँसल भ’ गेलनि तखन कहलनि- ‘आब हमरासँ नहि सम्भव।’
            भैया कहलथिन- ‘खूबे सम्भव। एकदम्मे सम्भव। अहाँ कतेक रगड़ी आ लगाड़ी रहल छी से कि कोनो हम नै जनै छी। देखलियनि नहि ज्ञानरंजनकेँ? कोना ‘पहल’केँ फेरसँ शुरू कयलनि?’
            भाइसाहेब अपन गुम्मीसँ अपन असमर्थता स्पष्ट क’ चुकल रहथि। भैया एकटा मरखाह आग्रह केलथिन जे जँ ओ (भाइसाहेब) स्वीकृति देथि त’ भविष्य मे ई (हमरा द’) आरंभकेँ प्रारम्भ क’ सकैत छथि। भाइसाहेब कोनहु जबाब नहि देलनि। ओ प्रायः एकटा निर्मोह, निर्लिप्त लोक सन भ’ गेल छलाह। मैथिलीक समकालीन राजनीति, षड्यंत्र, समस्यादिकेँ समाधान धरि ल’ चलब आब हुनका सकसँ प्रायः बाहरक बात भ’ गेल छलनि।
            रूपासँ भाइसाहेबक पोथी सभक पूछा-आछी केलहुँ। आइ काल्हि परसू, गल्तीनामा, एक आदि एक अन्त प्रभृति पोथीसभ मात्र एक-एक प्रति बाँचल छलनि। हरिमोहनबाबूक पोथीसभ ढेरी छपल-पड़ल। बिचौलिया-एजेन्टसभ हिनक नकली पोथी छापि      धनीक बनबा लेल अपसियाँत। के देखत एहि अन्याय आ अन्यायीसभकेँ? तथापि भनहि विद्यापति, अनुलग्न आ प्रसंगतः तीनटा पोथी रूपा उपहारस्वरूप भैयाकेँ देलथिन। इहो सूचना भेटल जे भाइसाहेबक समग्र छपि रहल छनि। हिनक कथा आ प्रभासजीक कथाक तुलनात्मक अध्ययन पर प-वि- (मैथिली) मे केओ च्ीण् क्ण् क’ रहल अछि।
            साँझक छओ बाजि रहल छल। गुमार कम नहि भेल छलैक मुदा रौद जरूर कम भ’ गेल रहैक। धाहो आब बेसी नहि रहैक। गपेशपमे कते आमो खा गेलहुँ से ध्यान नहि रहल। भैया विदा होयबाक मादे भाइसाहेबकेँ पुछलथिन- ‘जाइ छी भाइसाहेब।’
            ओ कहलथिन- ‘आइ नहि जाउ।’
            मुदा भैया कोना ने जैतथि। भाइसाहेब केँ सेहो काल्हि दिल्ली ल’ जा रहल छलथिन रूपा।
            चलैत काल ओ स्वयं उठि क’ बैसि गेलाह। अपन बेंत मंगलनि आ पएरसँ चौकीक नीचाँ राखल चप्पल टोहियाब’ लगलाह। मना केलहु पर ओ उतरि क’ ठाढ़ भ’ गेलाह। दुनू गोटे गोर लगलियनि। दुनू हाथ माथ पर राखि देलाह। स्वयं वरण्डा पर आबि गेलाह। कुर्सी पर बैसाओल गेलनि। ओ तखन कोनहु राजा-महाराजासँ कम नहि लगैत रहथि। बामा हाथे बेंत पकड़ने आ दहिना हाथ दहिना जाँघ पर रखने हमरालोकनि दिस तकैत। भाइसाहेब आ हरेकृष्ण भैयाक ई मिलन मैथिलीक दूटा ‘टावर’क मिलन छल। जहिना कथा विधा मे भाइसाहेबक कथाक कोनहु तुलना नहि तहिना कविता मे हरेकृष्ण भैयाक कविताक कोनहु तुलना नहि। एहि दुनूक एखन कोनहु विकल्पो नहि। भाइसाहेबक त’ जहिना कथा तहिना समीक्षा तहिना आलोचना-टिप्पणीत्यादि। राफ-साफ कह’ आ सुन’बला गुण (किंवा अवगुण) एहि दुनू गोटे मे समाने छल।

            भाइसाहेबक सम्पादित पत्रिका ‘आरंभ’ कएक टा प्रयोग आ प्रतिमान स्थापित कयलक। विशेष क’ सामग्री-चयन आ आलोचनात्मक गम्भीरता एहि पत्रिकाक किछु श्रेष्ठ गुणमेसँ छल। से प्रायः एहू कारणे सम्भव भेल छल जे एकर ओ एसकरे सब किछु रहथि। प्रयोगेक रूपमे आरंभ- 9, मार्च 1996क अंकमे धूमकेतुक कथा ‘छठि परमेसरी’क हरेकृष्ण भैया आलोचनात्मक समीक्षा कयलनि। एकर प्रत्यालोचना मे दू-तीन वर्ष धरि ‘छठि परमेसरी’ पर चर्च होइते रहि गेल। मैथिली साहित्यमे एतेक फैलसँ चर्चा आन कोनहु कथाकेँ प्रायः नहि भेटलैक। एकर अनुकरण मे शिवशंकर श्रीनिवासक कथा ‘सिनुरहार’केँ सेहो उतारल गेल मुदा से प्रयोगानुकरण नहि खपि सकल। हरेकृष्ण झाक लिखल आरंभमे रामकृष्ण झा ‘किसुन’ केन्द्रित आलेख सेहो बेस चर्चित-प्रशंसित भेल छलनि। आलोचनाकेँ एकटा नवरूप, नव त्वरा आ नव भाषा भेटि रहल छलैक। ई फराक विषय जे भाइसाहेब आ हरेकृष्ण झाक बाद दुनू गोटेक ई सम्मिलित प्रयोग-प्रयास कोनहु परम्पराक रूप नहि ध’ सकल। कारण, उत्तर पीढ़ी मे ने त’ आरंभे छल, ने भाइएसाहेब आ ने हरेकृष्णे भैया। भाइसाहेब निरन्तर 50 वर्षसँ बेसीए धरि साहित्य मे सक्रिय रहलाह से तन, मन आ धनसँ। अनुचितक विरोध किंवा निरंकुश होइत साहित्यिक संस्था ओ सत्तासभक विरोध करबाक कारणे ँ सभदिन ई बेसी गोटेक त’ अप्रियपात्रे बनल रहलाह। मुदा ताहिसँ हिनका कोनहु प्रकारक साहित्यिक क्षति कहाँ भेलनि! ओ एसकरे पर्याप्त रहथि। हिनक विविधक्षेत्रीय साहित्यिक काजसभ आइयो प्रतिमाने अछि।

            भाइसाहेब पटनामे जमीन नहि किनलनि। घर नहि बन्हलनि। कारण, ई हिनक प्राथमिकता मे सम्मिलित नहि छल। हिनक प्राथमिकता छल मैथिलीक पत्रिका, पत्रकारिता, समीक्षा-आलोचना, कथा-कवितादिक स्तरोन्नयन। से खूबे कयल। मुदा हिनकहि अनुयायीलोकनि लेल हिनक प्राथमिकता एकटा बौद्धिक बतहपनी सिद्ध भेल छल। भरि जिनगी संग लागल झोरा ऊघयबला चेला-चपाटीलोकनि असलके बेरमे भाइसाहेबकेँ एकांत साधनाक ओरियाओन क’ देलनि। रूपाक एहि कथन-भावक हमरा लग कोनहुटा उत्तर नहि छल। पुरस्कार-सम्मानादिक स्मृतिचिह्नसभ भाइसाहेबक एहि स्थितिकेँ देखि-देखि हँसि रहल छल कि कानि रहल छल से नहि कहि मुदा हमरा ओ तमाम स्मृतिचिह्न कननमुँह लागि रहल छल, अपन व्यर्थताक आदिकथा आ अंतकथा बाँचि रहल छल। हुनक गोधियाँ आ अनुयायीलोकनि अपन-अपन स्वक्रीत आ वातानुकूलित घरमे आराम फरमा-फरमा क’ भाइसाहेबक जतेक गुणगान गाबि रहल होथि मुदा भाइसाहेब सब दिन ओही किरेजाक घरमे एकांत तपस्वी बनल रहलाह। एहि क्रममे ओ कतेकटा साहित्यिक घर बन्हलनि से त’ कहब सम्प्रति असम्भव अछि मुदा जे बन्हिलनि से बेस देखनुक आ बेस मजगुत बन्हलनि।

            भाइसाहेबक उमेर अस्सी वर्षक भ’ गेल छनि। बरोबरि दुखिते रहैत छथि। कहाँदन ‘डिप्रेशन’ मे चल गेल छथि। दहिना अलंग मे पक्षाघात अपन क्षीण प्रभाव अवश्य देखा रहल छनि मुदा ई प्रायः हुनक असलका आघात नहि छल। हुनक एकाकी जीवन आ साहित्यकारलोकनिसँ हटल-कटल जीवन हुनका बेसी दोमि देने छलनि। हुनका संग अपन नाम जोडि़-जोडि़ अपन साहित्यिक परिचितिक पसार करयबला एकटा पैघ मुहलगुआ समूह आइ पतनुकान ल’ लेने छलनि। हिनक साहित्यिक उत्तराधिकार धएले-धएल हेरा गेलनि। तथाकथित उत्तराधिकारी (जे कि सुविधा लेबाकालटा छलनि)लोकनिक विचारधाराक मनोव्यायाम मात्रटा शेष बँचल छल। जमीनी काजक कोनहुटा जिम्मेदारी हिनकालोकनिक फैशनपरस्त वैचारिक व्यायामक सूची मे नहि अछि। ई लोकनि एकटा प्रोफेशनल कैरियरिस्ट सन पछिलाकेँ छोडि़ अगिलाकेँ लूझैत रहलाह।

            ओहि अल्पकालिके देखा-सुनी मे ई जरूर देखबा जोग भेल जे बेटीसभ अपन पिताकेँ बड़ सेवा करैत रहथि जखनि कि हुनकासभकेँ आनो प्रकारे ँ कएकटा संघर्ष एकहि संग करय पडि़ रहल छलनि। रूपा कहलनि जे कएक बेर त’ एहनो भेल जे अदालत जयबाक छलनि त’ एसकरुआ होयबाक कारणे ँ भाइसाहेबक सेवा-बारी क’ बाहरेसँ ताला भरि क’ चल जाथि।

            संयोग नीक छल जे हमसभ आइये आबि गेल रही कारण काल्हि 25 जून 2015 क’ भाइसाहेब सब गोटे दिल्ली जा रहल छलाह, दू-तीन मासक लेल। दू-तीन मास बाद की होयत से के जानय!

            हम मूक दर्शक बनल हिनका तीनू गोटेक बात सूनैत रहलहुँ। मोनहि मोन रूपाक सेवा, श्रम, धैर्य, संस्कार, हिम्मति आ संघर्षसँ अभिभूत भ’ गेल रही। समय ओरायल जा रहल छल। हमरालोकनि मेन गेटसँ बाहर चल आयल रही। एक मोन भेल जे दुइये-चारि मकानक बाद गंगा छथि, चलि क’ थोड़ेक सँझुका हवा खा ली। मुदा से नहि क’ सकलहुँ। नहि करय चाहलहुँ। मोन कहलक जे भगीरथे लग त’ आयल छलहुँ, एकदम अभिनव भगीरथ लग, जे एकहि संग भगीरथ आ दधीचि दुनू छलाह। अनचोके विद्यापतिक समदाउन मोन मे हहा उठल-

                                              बड़ सुख सार पाओल तुअ तीरे। 
                                         छाड़इत निकट नयन बहु नीरे।।

            गाड़ी पर चढि़ गेल रही। हरेकृष्ण भैया अझुका अंतिम बेर भाइसाहेबकेँ देखने रहथि। हमहूँ देखने रहियनि। भाइसाहेब एकटक देखैत-देखैत अपन मूड़ी गोंति लेने रहथि। पेट आ दुनू कनहा एखनहु कम्पित भेल छलनि मुदा एहि बेर ओ आन बेर जकाँ हँसल नहि रहथि----। ना----, हँसल नहि रहथि----।
            रूपा गमछाक खूटसँ भाइसाहेबक आँखि पोछने जा रहल छलीह। हमर गाड़ी स्टार्ट भ’ गेल छल। गतियो पकडि़ लेने छल। मुदा हमर मोन तखन ने त’ स्टार्टे होबय चाहैत छल आ ने गतिये पकड़य चाहैत छल।


दोसर पड़ाव : मरनक बेरि हरि केओ नहि पूछय

            सात जनवरी 2016, वृहस्पति दिन। स्कूलक उपरांत अपन कोचींगमे रही। दू बैच पढ़ौनीक बाद तेसरक सुरसारमे छलहुँ। 4 बजे अपराह्नक लगीच अशोकजीक फोन आयल- किछु बुझलो अछि?
            हम अकचकाइत कहलियनि- कहाँ किछु? किएक सर?
            मौलायल स्वरमे ओ कहलनि- भाइसाहेबक देहांत भ’ गेलनि।
            हम अवाक् रहि गेलहुँ।
            ओ कहलनि- की विचार? चलब?
            - एकदम चलब।
            - ठीक छै हम यथाशीघ्र विद्यापति भवन पहुँचि रहल छी। ओतहि संग होउ।

            हम अपन बैचकेँ तुरत छुट्टी क’ देलहुँ आ शीघ्रहि विद्यापति भवन पहुँचि गेलहुँ। ओतय रामसेवक राय, जगत नारायण      चौधरी, योगेन्द्र नारायण मल्लिक, जयनारायण ठाकुर, सुभद्र ठाकुर लोकनि रहथि। ई लोकनि एहि खबरिसँ एकदम अनभिज्ञ छलाह। ओहुना साहित्यक आ साहित्यकारक हाल-चालसँ समितिकेँ आइ-काल्हि निश्चिंतिए सन रहैत छैक। हम ओतय ई खबरि कहल आ शीघ्रहि ‘हिन्दुस्तान’क विनयजीकेँ सेहो ई खबरि देलियनि। समितिक पदाधिकारीलोकनि भाइसाहेबक चर्च करय लगलाह, से अपना भरि खुशफैलसँ कयलाह।

            कनेक काल बाद अशोकजी अयलाह। दुनू गोटे विदा भ’ गेलहुँ। साँझक बेर छल। अशोक राजपथ पर गाड़ीक बेसम्हार भीड़। महेन्द्रूबला रस्तामे त’ आरो गजगज। पहुँचलहुँ सावित्री कुटीर। सुकान्तजी हमरासभसँ पूर्वहि पहुँचल रहथि। गाड़ी लगा क’ गेलहुँ वरामदा पर। वरामदेपरसँ घरक दृश्य देखबा जोग भ’ रहल छल। भाइसाहेब उत्तर सिरे सूतल, निसभेर नीन्नमे। सम्पूर्ण शरीर वस्त्रसँ झाँपल, मात्र मुँह उघार। माथक चारूभाग माला सँ छाड़ल। लगमे रूपा आ हुनक माय बैसलि।
            अशोकजीक संग हम भीतर गेलहुँ। सभगोटे चुपचाप छलहुँ। सम्पूर्ण वातावरण किछु बेसीए चुप छल, किछु बेसीए शांत छल आ ते ँ एहि शांतिपूर्ण वातावरण मे रूपा आ हुनक मायक हिचुकि-हिचुकि कानब बेसी द्रवीभूत क’ रहल छल। बूढ़ी कनिते बाजलि छलीह- सोच रही थी कि ठीक हो जायेंगे तो दिल्ली ही ले जाऊँगी, वहीं ठीकसे इलाज कराऊँगी----
            अशोकजी जिज्ञासा कयलनि- हमरा त’ बुझलो नहि छल जे भाइसाहेब एतहि छथि।
            रूपा बजलीह- कुछ दिन से तो ठीक-ठाक थे। अचानक कल फिरसे तबीयत गड़बड़ाने लगा। डॉक्टर के पास ले गई और आज----
            आगाँ ओ किछु नहि बाजि सकलीह। हुनकर अभिप्राय बूझि गेल छलहुँ। तखने श्री नरेन्द्र झा (अध्यक्ष, मैलेस, पटना) आ विनोद कुमार झा (महासचिव, मैलेस, पटना) अयलाह। ओहो दुनू गोटे भाइसाहेबकेँ देखलनि। दुनूकेँ दुखी होयब स्वाभाविक छल। हम पाँचहु गोटे वरण्डे पर राखल कुर्सी पर बैसि गेलहुँ। वस्तुतः हमरालोकनिमेसँ प्रायः ककरहु नहि बूझल छल जे भाइसाहेब मास-दू-मास सँ पटनेमे छथि।

            साँझ सँ राति भेल जा रहल छल। सुकान्तजी अगिला क्रियाकलापक योजना बूझय चाहैत रहथि। गामसँ भतीजी-जमायसभ आबि रहल छथिन आ दिल्लीसँ दोसरो बेटी। तखन निजगुत कार्यक्रम बनत। मुदा ई हमरालोकनि लेल एकदम अस्पष्ट संकेत छल। काल्हि कोना की कयल जायत से बूझब त’ आवश्यक छल। से सगर समाजकेँ सेहो बुझायब आवश्यक छल। बैसल-बैसल समय बीतल जा रहल छल। अंततः सुकान्तजी रूपासँ पूछि-ताछि क’ कहलनि जे काल्हि दस बजे भाइसाहेबक दाह-संस्कार होयतनि, एहीठाम गुलबी घाटपर।

            यएह खबरि हम हिन्दुस्तान आ प्रभात खबरकेँ द’ देलहुँ। एहि खबरिक पाछाँ हिनकालोकनिक ई सोचब छल जे जिनका संस्कारमे भाग लेबाक होयतनि से समाचार पढि़ क’ आबि सकैत छथि। विचार नीक छल।

            सुकान्तेजी पुनः एकटा विचार रखलथिन- ‘एना कतेक काल बैसल रहब सभ गोटे? एखन चलै चलू। काल्हि ससमय अबै जायब।’ सभकेँ ई विचार रुचलनि। सभगोटे लगभग नौ बजे विदा भ’ गेलहुँ। भाइसाहेबक मकान मालिक चारू भैयारी तन-मनसँ तत्पर रहथि। जे सभ जिज्ञासामे आबथि सभगोटेक यथासम्भव ‘नोटिस’ लेथि। आइ-काल्हि एहेन मकान मालिक भेटै कहाँ छै? ताहूमे साहित्यकारकेँ?

            जाइत काल अध्यक्षेक गाड़ीमे सभगोटे चलि गेलाह। चलैत-चलैत सुकान्तजी हमरा एकटा मार्मिक बात कहि देलनि। कहलाह- ‘आब पटनामे एकटा अही ँ युवा छी जे सक्रिय रहै छी आ जकरा पर विश्वासो करै छी हमसभ। काल्हि अहाँ नओ बजे आबि जाइयौ। देखिते छियै एतय केओ छैक नहि।’ हम कहलियनि- ‘सर, हमरा त’ काल्हि स्कूल सेहो रहतैक।’ मुदा ओ नहि मानलनि। कहलनि- ‘एक दिन छुट्टी ल’ लिय’, मुदा अहाँ अवश्य रहू। देखिते छी हम सभगोटे बूढ़े छी। अबैत काल किछु माला ल’ लेब।’

            ओहो लोकनि चलि गेलाह। हमहूँ चलि गेलहुँ। राति भाइएसाहेबक गुनधुनीमे बीति गेल। काल्हि केना की हेतै? पुरुख त’ केओ नै छलै? कोना हुनक दाह-संस्कार क्रिया-कर्म होयतैक? रूपालोकनि कोना सम्हारतीक एतेक टा भार? आदि-आदि।

            आठ जनवरी 2016, शुक्र दिन। भोरे उठलहुँ। नित्य क्रियासँ निवृत्त भए, विदा भ’ गेलहुँ। हमरा डेरा (गोला रोड, बेली रोड)सँ भाइसाहेबक डेरा (घग्घा घाट, महेन्द्रू) कम सँ कम 17-18 कि-मी-। मुदा हम 8 बजेक लगीच पहुँचि गेल छलहुँ। ताधरि केओ साहित्यिक बन्धुलोकनि नहि पहुँचल रहथि। मालाक मोटरी रूपाकेँ देलियिन। भाइसाहेबक भतीजी-जमायलोकनि रातिए आबि गेल रहथिन। हुनकासभक धियो-पूतासभ। हम वरण्डापर बैसल रहलहुँ। मकान मालिक श्यामनाथ, गोपीनाथलोकनिसँ भाइसाहेबक पारिवारिक जीवन आ एकाकी जीवनक खिस्सा-पिहानी सूनैत रहलहुँ। गोपीनाथजी त’ कहलनि जे एक बेर त’ वाथरूममे भाइसाहेबकेँ करेण्ट लागि गेल छलनि त’ वएह दौड़ल रहथि। आरो मरिते रास व्यक्तिगत-पारिवारिक घटना-परिघटना सभ कहैत रहलाह। मोहल्लामे भाइसाहेबक आ रूपा सभ बहिनीक बड़ सम्मान, से आगत स्थानीय लोकसभक गपशपसँ लगैत रहल।

            भाइसाहेब लेल पैजामा-कुर्ता अनबाक छलैक। किनको लेल सलवार-कुर्त्ती सेहो। एतेक भोरे दोकान सभ त’ खूजैत नहि छैक तथापि भाइसाहेबक एकटा जमायकेँ (हुनक भायक जमायकेँ) गाड़ी पर बैसा क’ विदा भेलहुँ। अशोक राजपथक सभटा दोकान बन्द छल। सब्जीबागमे एकटा दोकान खुजिए रहल छल। ओतहि रुकलहुँ। भीतर जाय एकटा पैजामा कुर्ता आ दू सेट सलवार-कुर्ती कीनलहुँ। ओतहि बूझय जोग भेल जे भाइसाहेबकेँ मुखाग्नि देथिन हुनक बेटी। भेल जे रूपा देथिन, कारण अंतिम किछु वर्ष सँ रूपा जे अपन पिताक सेवा कयल तकर जोड़ा नहि छल। किछुए दिन पूर्व अपन पिताक सेवा करैत काल हुनक दहिना हाथो टूटि गेल छलनि। प्लास्टर करबय पड़ल छलनि। ककरो-ककरो धैर्यक प्रायः सभटा परीक्षा एकहि बेर देब’ पडि़ जाइत छैक।

            तखने केओ स्थानीय शुभचिंतक फोटोग्राफरक चर्च क’ देलथिन। गोपीनाथजी हमरा संग कयल आ चारू कात चारि फेरा देलनि तखन फोटोग्राफर आयल आ सभठामक फोटो घीचय लागल। ताधरि बहुत साहित्यकार-साहित्यप्रेमी आबि गेल रहथि। दस बजेक लगीच भाइसाहेबक फड़की उठल। चारू कात चारू जमाय कनहा लगौलनि। अन्य सभगोटे पाछू-पाछू विदा भेलाह। चारू जमाय कहय लगलाह- ‘रामनाम सत्य है--- सबको यही-----’। भेल जे ई सूनि भाइसाहेब तमसा ने जाथि मुदा भाइसाहेब तमसाय लेल बैसल कहाँ रहथि।

            गुलबी घाट पर आनल गेलनि। विद्युत शवदाहगृहक सीढ़ीक ठीक सोझाँ राखल गेलाह। ओतहुक जे यथामान्य वैदिक कि लौकिक क्रियासभ छल तकर ओरियाओन प्रारम्भ कयल गेल। किछु चेष्ट ओरियाआन सेहो किछु अपचेष्ट ओरियाओन सेहो। स्थानीय डोमक पैतरा प्रारम्भ भेल। संग लागल जे ओ एतेक रास लोक देखलकै से ओहो बूझि गेलैक जे ई मृतक कोनो बड़का लोक छल। बड़का लोक त’ छलाहे भाइसाहेब मुदा साहित्य-क्षेत्रक बड़का लोक। मुदा डोमक अभिप्राय आर्थिक क्षेत्रसँ छल। गोपीनाथजी ओकरा बहुत महोजरो कयल मुदा ओ बात बूझय लेल तैयार नहि छल। जखन गोपीनाथजी अपन पटनियाँ रूप पकड़लनि आ अपना लहजा मे धमकौलनि तखन जा क’ ओ मानलक। मुर्दा जरयबाक पंजीयन भेल आ भाइसाहेबकेँ शवदाहगृहक भीतर आनल गेल।

            विद्युत शवदाह’क हमर ई प्रथम अनुभव छल। शवदाहगृहक देवालसभ धुआँसँ कारी स्याह भ’ गेल छलैक। लाइन कटल रहैक। भाइसाहेबकेँ शवदाहगृहक भीतरमे बनाओल भट्ठीक सोझाँ उत्तर सिरे राखल गेल। रूपा दुनू बहिनी आ हुनक पितियौत बहिन-बहिनोइलोकनि सपरिवार उपस्थित रहथि। दुनू भाँइ गोपीनाथजी सेहो सभ व्यवस्थामे अगे-अगे तत्पर रहथि।

            भट्ठीक मुँह दक्षिण दिशा मे खुजैत छल जतय एकटा दृढ़ फाटक लागल छलैक। भट्ठीक बाहर 10-12 डेगक एकटा रेलवे ट्रैक बनल छलैक जाहिपर एकटा ट्रॉली सदति राखल रहैत छलैक। ओही ट्रॉलीपर लकड़ीक बनाओल एकटा फ्रेम राखल गेल छल जाहिपर भाइसाहेबक पार्थिव शरीर राखल जाइत। हमरालोकनि लाइन अयबाक प्रतीक्षामे रही। एगारह-साढ़े एगारह बाजि गेल होयत मुदा ताधरि बिजली नहि आयल। समाचार पत्र पढि़-पढि़ बहुत गोटे अयलाह। अशोकजी, सुकान्तजी, विनोदजी, वैदजी, नरेन्द्र झा (नोवेल्टी), रघुवीर मोचीजी, महारुद्रजी, डा- वीरेन्द्र झा (प-वि-), रामसेवक राय, भवनाथ झा, धीरेन्द्र मोहन झा, शरदू भैया, बालमुकुन्दलोकनिक अलावे आओरो कएक गोटे आबि गेल रहथि। बारहो बजे धरि बिजली नहि आयल। एकटा आओर मुर्दा आबि गेल छल आ डोमसभक पैतरा पुनः प्रारम्भ भ’ गेल छलैक। ओही समूह मे सँ केओ बाजल जे आइ 2 बजे धरि बिजली नहि आओत, मेटिनेन्सक काज भ’ रहल छैक। कहाँदन ई समाचार काल्हिए पेपर मे द’ देल गेल छलैक। जे-से। हमरालोकनि असमंजसमे पडि़ गेल रही। गोपीनाथजी रूपाकेँ पुछलनि जे आब की कयल जाय? बिजलीक प्रतीक्षा कयल जाय कि दोसर वैकल्पिक व्यवस्था कयल जाय? रूपा दुनू बहिनी वैकल्पिक व्यवस्थाक स्वीकृति देलनि। गोपीनाथजी ताहिमे लागि गेलाह। ओही ठाम लकड़ीक भंडार सेहो छल। से मोट-मोट आ सुखायल-टटायल लकड़ी सभ। गोपीनाथजी लड़कीबलासँ गप कयल आ तदनुकूल व्यवस्था प्रारम्भ भेल। भाइसाहेबकेँ गंगाक कछेरमे आनल गेलनि। लकड़ीबला त’ आदेश पबिते अपना चाकर द्वारा सभ प्रकारक लकड़ी सभ ओहि कछेरमे चयनित जगह पर खसबय लागल। ओहि ठाम त’ पैसा फेकू तमाशा देखू। आन कथूक कोनहु काज नहि। शीघ्रहि अँचिया बनाओल गेल। काष्ठासन बनाओल गेल। भाइसाहेबककेँ ताहिपर उत्तर सिरे गंगाभिमुख राखल गेलनि आ एक आँटी खढ़क छीपमे आगि धरा हुनक मझिली बेटीक हाथमे पकड़ा देल गेल। वएह मुखाग्नि देलनि आ तदुपरान्त शेष काज पवनक सहयोगसँ अग्नि देवता क’ देलनि। भाइसाहेब पंचतत्वमे विलीन भ’ गेलाह।

            संध्येकालसँ आकाशीय-अंतर्जालिक मैथिलीमे ई बात घोल-फचक्काक रूप धारण क’ लेलक जे भाइसाहेबक दाह-संस्कारमे आठे गोटे पहुँचलाह। ई आँकड़ा अपन गणीतीय सम्पूर्णतामे गलत छल तकर त’ हमहीं गवाही दैत छी। स्वजन-परिजन सहित साहित्यिक प्राणीलोकनिकेँ मिला हमरा सहित लगभग तीस गोटे संस्कार मे उपस्थित रही। ई बेसीए भ’ सकैत अछि, कम नहि। ई बात हमरालोकनि सँ बेसी निजगुत के कहि सकैत अछि? मुदा एकर किछु आओरो पक्षसभ अछि। भाइसाहेब एतेक दिनसँ पटनामे रहथि से एकाधे गोटे के बूझल रहल होयतनि। भाइसाहेबक सक्रिय जीवन मे हुनका संग खाय-पीबयबला स्वजनलोकनिकेँ सेहो नहि बूझल छलनि जे भाइसाहेब पटनेमे छथि आ बेस दुखित छथि। त’ ओ केहेन स्वजन सिद्ध होइत छथि से भाइएसाहेब जानथि कारण, हिनक यएह स्वजनत्व हुनकालोकनि लेल भजौखा बनैत रहैत छल आ ओ लोकनि एकरा बेर-बेर भजबैत रहल करथि। भाइसाहेब अपन सक्रिय साहित्यिक जीवनमे जिनका सभकेँ मोजर नहि देलनि, विरोध करैत रहलाह आ सदति ओकाइत सेहो देखबैत रहलाह, तिनको सभक आत्माक शांतिक त’ यएह अवसर छलनि। ओ सभ किएक अबितथि? जँ ओ लोकनि एतेक उच्च विचारक रहितथि आ कि भाइसाहेबक समगोत्री रहितथि त’ भाइसाहेब अनठेबे करितथि। मुदा शहरक आ गाम-देहातक रहन-सहनमे जहिना अन्तर छैक तहिना ओहि दुनूठामक जीवन-दर्शनमे सेहो अन्तर छैक। एहि अन्तरकेँ नहि गछने कएक प्रकारक मानसिक-वैचारिक असंतुलन उत्पन्न होइत छैक। तथापि जीवन-जगतक तमाम सत्य अपना तरहेँ घटित होइत रहैत छैक आ सदिखन मारिते रास नव-पुरान कहबीकेँ चरितार्थ सेहो करैत रहैत छैक। जेना- पीठ पाछू अन्हार, भरनहि गुण कि पड़ेनहि गुण, अढ़ाइ हाथक साङि सभ पर आदि।

साभार - सांध्य गोष्ठी, आठम पुष्प, अक्टूबर 2016, पटना
लेखक - डॉ. कमल मोहन चुन्नू


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