यह प्यासों का प्रेम नगर है... - गुंजन श्री

गजलमे एकटा रिवाज़ छलैक जाहिमे जँ कोनो लेखककेँ कोनो आन लेखकक मतला पसिन्न आबि जाइत छलनि त' ओ ओहि पूरा मतला वा ओकर एकटा पाँतिकेँ ल' क' अपन एकटा नव गजल लिखैत छलाह। जाहि नव रचनाक विषय-वस्तु आ प्रकृति लगभग भिन्न रहैत छल मूल पाँतिक लेखककसँ । एकरा उत्कृष्ट उदाहरण हैदराबादक प्रसिद्ध शायर मखदूम आ मशहूर पाकिस्तानी शायर फ़ैज़क गजल "आपकी याद आती रही रात भर" अछि । मखदूम ई गीत फ़िल्म गमन लेल लिखने रहथि । पछाति हुनका निधनपर हुनका स्मृतिमे फ़ैज़ सेहो एहिए मतलाक एक पाँतिसँ  एकटा गजल लिखलनि । हेबनिमे त' श्री बुद्धिनाथ मिश्र जी सेहो एहि मतलाक पाँतिसँ एकटा गजल लिखलनि अछि। कहबाक तात्पर्य ई जे ई एकटा स्वस्थ आ सुदृढ़ सन परम्परा छल । मुदा एमहर आबि क' ई स्वस्थ परम्परा लेखक सभक व्यक्तिगत 'ईगो'क कारण मकमका गेल अछि । मुदा नै , हियाओ नै हारू ; निभरोस नै होउ । मैथिली साहित्य जियौने अछि एहि परम्पराकेँ । मुदा एकर पाछूक जे मानसिकता अछि से चिन्तनीय अछि । 

कोनो कविताकेँ पढ़ि ओकर प्रतिउत्तर वा प्रभावमे आबि क' कविता लिखब वा लिखा जायब मनोवैज्ञानिक स्तरपर स्वाभाविक बात थिक, तखन, जखन कि ई स्वाभाविक रूपसँ होइक । जेना कि घनघोर बरखामे सड़कपर एसगर जाइत कोनो व्यक्तिकेँ देखि जँ हमहुँ घरसँ बहरा जाइ त' हमहुँ ठीक ओहिना स्वाभाविक आ प्राकृतिक रूपसँ बोदरि-बोदरि होयब जेना ओ पहिल व्यक्ति भेल छल होयत । एतय ई कहबाक कोनो खगता नै बुझि पड़ैत अछि जे दुनू व्यक्तिक दिशा एक रंग वा फराक भ' सकैत अछि।  त' से कहलहुँ जे कोनो रचना पढ़ि क' ओकर प्रभावमे रचना करब एकटा स्वस्थ, सुहृदय आ मनोवैज्ञानिक रूपसँ स्वाभाविक प्रक्रिया थिक । 

हालहिमे एकटा कविताक 'इर्ष्यामूलक प्रतिउत्तर' कविता देखल अछि । अपरतीब लगैत अछि । वैचारिक स्तरपर एतेक संकुचनकेँ कियैक अंगेजि रहल छी हमरालोकनि ? कियैक अपनेसँ अपन काव्य-चेतनाक मूलाधारकेँ अपना भीतरक अनेरोक ईर्ष्यासँ  छिन्न-भिन्न करबापर लागल छी हमरालोकनि ? एहिसँ हानि ककर भ' रहलैक अछि ? व्यक्तिक वा समष्टिक ? 

सृजनशीलता एकटा "प्रेम-नगर" थिक । कविता त' ताहूमे "प्यासों का प्रेम-नगर" । एहिमे जँ एतेक ईर्ष्या आ सम्बन्धित प्रवृति आदिक स्थान रहतैक तहन त' बुझु जे भेल जुलुम । कविता लिखेबे नहि करत । जँ  कदाचित लिखि लेल गेलैक त' कि ओ ठीके ओ कविता थिक जकरा कविता कहल जा सकय ? 

आइ-काल्हि कविताक नामपर जे 'कविता सन किछु' लिखबाक ट्रेंड चलि रहल अछि ताहिसँ साहित्यक कतेक लाभ ? 

साहित्यमे रचना त' दृष्टि आ दृष्टिकोणक मेहक चारुभर ऊबडुब करैत रहैत अछि । जकरा जेहन दृष्टि तकर तेहन रचना । हमरा एखन प्रसंगवश कतहु पढ़ल पाश्चात्य दर्शनक उद्गमस्थल प्राचीन ग्रीसक एकटा शिक्षामूलक दंत-कथा मोन पड़ैत अछि जाहिमे दू टा व्यक्ति एकटा कोलाहलसँ भरल बाजारमे जाइत अछि । अचानकसँ ओहिमे सँ एक गोटे ठमकि जाइत अछि त' दोसर कारण पुछैत छैक । पहिल कहैत छैक जे एतय कतहुँ कोनो चर्चमे प्रार्थना भ' रहल छैक । दोसर पुछैत छैक जे एतेक हल्ला-गुल्लामे कोना सुनेलौ तोरा । पहिल कहैत छैक भीतरमे जाहि वस्तुक आकर्षण, उपस्थिति वा इच्छा रहैत छैक बाहर वएह वस्तु उपलब्ध होइत छैक ।

ई कथा त' एतय शेष होइत अछि मुदा जँ ई बात सत्य थिकैक वा सत्यक कनेको निकट छैक त' हमरालोकनि कोन रस्तापर अन्हारमे बौआ रहल छी ? आ कतेक दिन आओर बौआयब ? घुरबाक बेर कखन आओत ? 

की बेर नै आबि तुलायल अछि बन्धु ?

आलेख : गुंजन श्री

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2 Comments

Dr. Prakash Jha said…
बहुत सुन्दर आ समिचीन. अहाँक लेखनमे खांटी मैथिली शब्दक प्रयोग आकर्षित करैत अछि आ द्वेस सेहो भरि दैत अछि. अस्तु. कोनो गप्प के कोनो कथा स’ जोड़ि कहबाक कला रोचक आ आत्मीय रहैछ.
Gunjan Shree said…
आभार अग्रज ।