एकटा अइपन अपन लिखि त' दितहुँ अहाँ (संस्मरण) — गुंजन श्री

श्री हरे कृष्ण झा

1

तहिया ग्रेजुएशन मे रही। प्रोजेक्ट वर्क चलैत रहय। साधारणतया लेट सँ घुरैत रही डेरा। आइ मुदा साँझहि सँ मोबाइल बेर-बेर बाजय। माँ करय फोन जे आइ जल्दी आबि जइहें। कियैक ? 
 हम पुछलियैक। माँ कहलक हरेकृष्ण भैया आयल छथिन्ह। "अच्छा" कहि क' हम फोन काटि देल।

हम ताहि सँ पहिने हुनकर सिर्फ नाम सुनने आ कविता पढ़ने रही। पिताजी बेसी काल कविताक संदर्भ मे हुनकर नाम लैत छलखिन। हमरा घर मे हुनकर कविता संग्रह "एना त नहि जे" बीस टा सँ बेसीए प्रति छल। जे धीरे-धीरे पिताजी अपन प्रिय सब केँ दैत रहथिन। हमरा त' घरे मे रहय सबटा। एक दिन उनटाओल ओहि पोथी केँ। कारण, मोन मे भेल जे कियैक कहैत छथिन पिताजी जे एहि पोथी केँ बाइबिल जकाँ पढ़बाक चाही। आखिर बात की छैक एहि मे। से उनटाओल ओकरा। पहिल कविता जे उनटल से छल "गुलाबखास"। हम एहि आमक नाम सुनने रही। खयनो रही। बड्ड नीक लगैत छैक ई नाम खयबा मे। कविता पढ़ल मुदा ओहि कविताक मूलाधार मे आम नै छल आ ने ओ आम कविता रहय। आम सँ बेसी जे बात छल से घेरि लेलक। आम आ भाषा एक्के कविता मे तेना ने ठाढ़ रहय जे बिहुँसय लागल रहय मोन। दू-तीन बेर पढ़ल ओहि कविता केँ। प्रायः तीन-चारि टा कविता जाँहि-ताँहि सँ पढ़ि क' पोथी राखि देने रहियैक ओतहि जतय सँ उठौने रही।

त' से कहैत रही जे माँक फोन काटि देने रही। प्रायः 9 बाजि गेल रहय। हमरा सोह नै रहल फोनक। माँ फेर फोन कयलक। कहलक जे "जल्दी एबही की नै ? हरेकृष्ण भैया कहैत छथिन जे 
— "ओ आबि जायत तहन सब गोटे संगे भोजन करब।" सामान्यतः हम आ पिताजी सेहो संगे भोजन करैत छी राति क' जँ दुनु गोटे डेरा मे रहैत छी। एहन अनिवार्य नियम नै छल जे किछुओ होउक मुदा भोजन त' संगे करब। नै हम कहियो 'वेट' कयल पिताजीक आ ने पिताजी हमर। से जे सुनलहुँ जे भोजन लेल 'वेट' करैत छथि त' चटपट विदा भेलहुँ। करीब दस बजे डेरा पहुँचलहुँ। केबाड़ खोलितहि माँ खिसियायल "ओ बीमार रहैत छथिन से नै बुझैत छिही। भोजन मे अबेर भ' गेलनि अछि। से नै हम पुछैत छियौक जे कोन एहन उनटन करैत रही जे एतेक अबेर भेलौक।" हम नहुँये सँ कहलियैक घर मे पाहुन छथिन, एखन चुप भ' जो बाद मे बाजि लीहें। कहैत सोझे पिताजीक बेडरूम मे हूलि गेलहुँ। ठीक सोझाँ मे कुर्सी पर आसमानी कुर्ता आ दप-दपधोती पहिरने बैसल रहथि। हम गोर लागय लेल झुकितहुँ कि ताहि सँ पहिनहि ओ ठाढ़ भ' गेल रहथि। हमरा मोन पड़ल जे बाबा सेहो एहिना ठाढ़ भ' जाइत रहथिन जखन कियो गोर लागय आबनि त'। ताधरि माथ केँ एकटा आत्मीय हाथ स्पर्श क' गेल रहय। 

ई पहिल भेंट छल।

राति सुतय सँ पहिने पिताजी कहलनि जे काल्हि भोर मे जखन कहथिन भैया केँ डेरा पहुँचा अबियहुन।

2

 "हमरा सँ मिलेबैं गजल मे" ?  मोटरसाइकिलक पछिला सीट पर बैसल पुछलाह।
 "भ' चलय एक दान" हम कहलियनि।
          आ ओ शुरू भ' गेल रहथि। पटनाक चिड़ियाघर आ एयरपोर्टक बीच बला रस्ता पर हम दुहु गोटे मेहँदी हसनक गजल बेरा-बेरी गाबय लागल रही। हम मोटरसाइकिल और स्थिर गतिये चलाबय लागल रही। ओ मगन होइत जाइत रहथि एहि गजल मे। "कफ़स उदास है यारों..." बला पाँति केँ बेर-बेर गबथिन, जाहि टान पर ल' जाय चाहैत रहथि ओहिठाम नै जा सकैक स्वर, मुदा बेर-बेर जयबाक निष्फल प्रयास करैत रहलखिन। करीब सात-आठ बेरक बाद कहलखिन- “आब तोहर टर्न।“ हम गौलहुँ ओहि लाइन केँ। बेर-बेर गाबय कहलखिन। कइयेक बेर सुनलाक बाद कहलनि जे “एहि गजल मे दूटा शेर हमरा बड्ड प्रिय अछि।“
हम पुछलियनि 
 “कोन-कोन ?”
"कफ़स उदास बला" आ दोसर "जो हम पे गुजरी है सो"। ओ बजलाह !
हम कहलियनि 
“ई गजल बेसी प्रिय अछि की गायिकी ?”
“दुनु।“ ओ कहने रहथि ।
         तकरा बाद अपने मोने कहलनि -"हम मेहँदी हसन सँ भाषा सीखने छी"। हमरा चकबिदोर लागल। एक्सप्लेन करैत कहलखिन 
"देखही कतेक सम्हारि क' मेहँदी हसन शब्द सब केँ छुबैत छथिन। आ सब सँ मारुक बात जे कतेक विस्तार कोन शब्द केँ कतय आ कोना देल जाए से हिनका सँ नीक कियो नै कहि सकैत छौक।" आ तकरा बाद हमरालोकनि ‘खादिम्स’ शो रूम पर पहुँचि गेल रही। दोकान तक पहुँचैत-पहुँचैत ताकि गेल रहथिन। पुछलियनि “पानि पीब ?”
  “अखरा पानि नै पीबौ।
“तहन कोना पिबैक ?”
"साफे बूड़ि छैं तोँ धरि, अरे चल रसगुल्ला खेबैक।" चारि-चारि टा रसगुल्ला खयलाक बाद हमरालोकनि खादिम्सक दोकान पर आबि चप्पल किनबाक सूर-सार करय लगलहुँ । फेर हुनका डेरा पहुँचा देलियनि आ घुरि अयलहुँ हम अपना डेरा ।

तकर बाद किछु सप्ताह नै गेलियनि भेंट करय । ओहो नै बजौलाह । साधारणतः जखन कोनो बेगरता होइन बाहरक त’ फोन करथि । कहथि ‘चुन्नूजी’ हमरे लेल छोड़ि गेल छथुन पटना मे, जखन बजबियौ तुरत हाज़िर भेल कर । मुदा हमरा कखनोकाल बद्द तामस लहरय । असल मे हुनका अपन बीमारी दुआरे कोनो गप केँ अनेरोक बेर-बेर सोचबाक आ ताहि मादे परेशान रहब मजबूरी रहनि । विशेष क’ फोनक मामला मे । हुनकर ई इच्छा रहनि जे जखन कखनो फ़ोन करथि निश्चित रूप सँ उठाओल जयबाक चाही । हमरा विशेष काल दिनक समय मे अपन व्यस्तताक कारणे फोन उठेबा मे बिलम्ब हुए, फोन संग मे नै रहैत रहय क्लास मे । जखन मोबाइल देखी त’ पंद्रह-बीस टा मिसकॉल । हमर एकटा आदत अछि जे बेर-बेर फोन करब हमर नै पसिन्न अछि । ने हम ककरो बेर-बेर फोन करैत छी आ ने हमरा कियो करय से पसिन्न अछि । अधिकतम दू टा मिस्सकॉल केँ हम इमरजेंसी मानैत छी| से जखन मोबाइल पर एतेक मिसकॉल देखी त’ बद्द तामस हुए मुदा क’ की सकैत छी !  फ़ोन करियनि त’ पहिल बात यैह कहथि जे फ़ोन कियैक नै उठेलें ? हम बिचारी, जे ई बुझैत कियैक नै छथिन जे फोन हरदम उठओले जाइक से जरुरी नै छैक । लोक व्यस्त सेहो रहि सकैत अछि । मुदा हुनका ई बात कहबनि कोना । प्रायः नहिएँ कहि सकलियनि कहियो । आब त’ कहियो नै सकबनि । आ कि कहबनि ?

3

— " कत्त' छी बौआ"। बहुत मद्धिम मुदा आत्मीय स्वर छलाह फोन पर।
— " बाहर छी कक्का। किछु बात की ?" हम कहलियनि।
— " एमहर नै आयब ?" पुछलनि।
— "कोनो काज अछि की ?" हम बाजि गेल रही।
— " कोनो काज रहत तहने बजेबौ। भेंट कर आबि क' आइ साँझखन।"
        हम अनुभव कयल जे हुनका हमर ई गप नै नीक लगलनि। लगबाको नै चाही। कचोट भेल हमरा जे कियैक एना बाजि गेलहुँ। धखाइत चारि बजे साँझ मे पहुँचल रही अनिशाबादक इंद्रभवनक तेसर महल परहुक ओहि छोटकी कोठली मे। उजरा धोती आ गंजी पहिरने चौकी पर बैसल रहथि। कोठली मे पैसैत देरी बरखय लगलखिन। हमरा पहिने बुझल छल जे ई त' हेब्बे करतैक आइ। कोनो असरि नै पड़ल। हँसैत-मुस्कियाइत सुनि लेलहुँ। तकरा बाद जेना मोन घुरि अयलनि ओहि ठाम जाहि लेल बजेने रहथि। कहलनि — 
"मैथिलीक किछु कवि सबहक कविताक अंग्रेजी अनुवाद करबाक बहुत दिन सँ नियार कयने छी, किछु केँ कयनहुँ छी। मुदा तोरा पीढ़ीक रचनाकार सब केँ नै जनैत छी, जे के सब छथि आ केहन लिखैत छथि। कम सँ कम दस-दस टाक रचना सबहक उपलब्ध करबा।" हम किछु गोटेक नाम, जतेक हमरा बुझ' अबैत अछि ताहि हिसाब सँ ओ केहन लिखैत छथि आ हुनकर सबहक मोबाइल नंबर हुनकर छोटकी डायरी मे लीखि देलियनि। तकरा बाद चाह बनब शुरू भेल। आधा घंटा त' पक्का छल लागब। हम पुछलियनि "अहाँ केँ चाह बयनाब बीरबल सिखेने रहथि की ?"  " नै रौ, ओ सिखैत रहथि हमरा सँ"  कहि क' भाभा क' हँसय लगलाह। हमहुँ मुस्किया उठल रही। फेर ओ अपन हाथक आ गरदनिक खास मुद्राक प्रयोग करैत कहलखिन "तोरा की होइत छौक तोँहि टा गप मारि सकैत छैं।" — "नै, से कहाँ कहलहुँ"। हम गप बदलि देलियैक। पुछलियनि "आहाँ अपना कविता मे सूर्य आ सुर्ज दुनु लिखैत छियैक से कियैक ? एक रंग कियैक नै छैक ?" ओ हमरा दिस गहींर नजरि सँ ताकि देने रहथि। हम आँखि हटा लेने रही हुनकर चश्माक ओहि कातक गहींर आँखि पर सँ। बजलाह -"आओर की सब प्रश्न छह ?" हम पुछलियनि- "एतेक सुंदर अंग्रेजी अबैत अछि अहाँ केँ, तहन मैथिलीये मे कियैक लिखैत रहलियैक ?' फेर ताकल रहथि। हम फेर पुछलियनि -"कविता माने ?"। ककरो जबाब नै देलखिन तत्क्षण। हाथ मे दुनु गिलास चाहक लेने ओछैन पर बैसि क' कखलखिन जे "एहन तरहक सबटा सवाल घनेरो लोक सँ घनेरो लोक पूछि लेने छैक। कोनो खास नै छौक एहि सवाल मे, आ जँ कदाचित छौहो त' अपने ताक जबाब एकर। कतेक दिन हरेकृष्ण रहथुन जबाब देबा लेल। कवि केँ अपन प्रश्नक जबाब अपने तकबाक चाही। जाबत धरि चिंतनक स्तर पर कवि उच्च आसान नै ग्रहण करत अपना भीतर मे, ताबत धरि कविक मूल विकास हमरा नै लगैत अछि जे सम्भव छैक। जेना झाँझन फारय काल मे बाँसक सबटा गिरह फटैत छैक तकर बादहि नीक टाट बनि सकैत छैक तहिना चिंतनक काज छैक कविक जीवन मे।" हम डरे फेर किछु पुछलियनि नहि मुदा ओ कहैत गेलाह। "कविताक एकटा संगीत होइत छैक। ई संगीत बहुत मुश्किल सँ बुझाबक अबगति होइत छैक। जेना प्रत्येक गीतक एकटा विशेष लय होइत छैक तहिना प्रत्येक कविताक एकटा आंतरिक लय होइत छैक। ओ लय बहुत महत्वपूर्ण चीज छैक। बेसी काल कवि स्वंय नै बुझैत अछि ओहि लय केँ तैं कविता भहरि जाइत छैक आ लगैत छैक जे ई कविता जानि-सुमानि क' योजनाबद्ध तरीका सँ लिखल गेल अछि।"

"कविता केँ लिखबाक कोनो योजना नै होयबाक चाही ?" हम बीचहि मे टोकि देने रहियनि। "निश्चित रूप सँ होयबाक चाही मुदा जेना एखन भ' रहल छैक तेना नै"। आ तकरा बाद कविताक निर्माण आ सृजन, कविता लिखय मे अवचेतन आ चेतन मनक खेल-बेल, कविता पढ़ल कोना जयबाक चाही, चिंतन कोना कयल जयबाक चाही कविता पर, आदि-आदि पर बड़ी काल धरि बजैत रहलखिन। हमर नजरि घड़ी पर गेल। साढ़े आठ बाजि गेल रहैक। सामान्यतः ओ पाँच बजे साँझ सँ आठ बजे तक भेंट-घाँट करैत रहथिन सब सँ स्वास्थ्य कारण सँ | मुदा एखन अबेर भ' गेल रहैक। हम विदा होयबाक सुरसार करय लगलहुँ त' कहलनि "अंघस-पंघस नै कर। ओ पान बला डिब्बा ला आ ओहि कात रैक पर 'हरिशंकर' जर्दाक डिब्बा छैक से उतार।" हम उतारि अनलहुँ। दू खिल्ली पान लगौलनि। एकटा ओ खेलनि आ एकटा हमरा देलनि आ कहलाह —  "बाप नै खाइत छथुन हमरा सोझाँ !"  "से कियैक" —  तुरत पुछलियनि। कहलाह "बिकॉज यू आर माय यंगेस्ट फ्रेंड एंड चुन्नू जी इज यंग ब्रदर।" प्रायः सब युवा हुनकर मित्र रहनि। ओ अपने चिर युवा रहथि विचारक स्तर पर।

तकरा बाद कइएक बेर हुनका ओहिठाम जाइत रहलहुँ। प्रायः पंद्रह दिन पर त' निश्चिते। एक दिन श्री मनीष अरविंद कहलनि जे भाइ (मने हरे कृष्ण झा) कहलनि अछि जे गुंजन संगे आबि जाउ, सुभीता होयत। आ हमरालोकनि गेलहुँ रही भेंट करय हुनका। मनीष जी फल ल' क' गेल रहथिन। देखिते कहलखिन अनेरे जियान केलहुँ पाइ। हमरा नै नीक लगैत अछि ई सेब। हँ, ई अंगूर जरूर खाइत छी कखनो क'। 

एहन सन घनेरो स्मृति दलमलित कयने रहथि अछि मोन केँ। करिते रहत उपाय कोन !

4

—"हैदराबाद शिफ्ट करैत छी बौआ ?" फोन पर पुछलनि।
—"हँ"। हम एतबे बाजल रही।
—"कहिया जायब "। पुछलनि।
—"17 जून केँ"। हम कहने रहियनि।
—"जयबा सँ पहिने हमरा भेंट क' जायब। आशीर्वाद देबाक अछि।" कहलनि।
—"परसू आयब हम साँझखन।" कहलियनि।
—"ठीक छैक।" फोन काटि देने रहथि।
     परसू नै जा सकल रही। साँझखन 7 बजेक लगीच फोन केलनि। उठबिते बजलखिन "ठीक छी ने !"।
      —
"हँ ठीक छी" गोर लगैत छीक संग हम कहलियनि।
      —"जँ ठीक छीहे त' आइ अयलहुँ ने कियैक ? आइ त' अबैया छल ने ? हम कहलियनि जे "सुता गेल रहय तैं नै आबि सकलहुँ। एखन आउ की काल्हि आउ।"
"आब काल्हिए आउ पाँच बजे साँझखन।" कहलाह। आ फ़ोन काटि देलखिन।

             प्रात भेने जखन गेलहुँ त' बहुत रास गपक बाद कहलनि जे चुन्नू जी पटना सँ गेलाह त' तोँ छलह। आब तोहूँ जाइत छह। हम त' कटिये सन जायब सब ठाम सँ। अपडेट्स कोना भेटत आ हमर काज-राज कोना हेतैक। हम की कहि सकैत रहियनि। ओ अपने कहलाह फेर "हैदराबाद हमर जगह अछि। हम रहल छी ओहिठाम। नीक शहर छैक। नीक सँ पढ़बाक-लिखबाक छैक ओहिठाम। बुझलहुँ ? "हँ" हम बाजल रही। घुरि आयल रही ओहि दिन आ किछुए दिनक बाद हैदराबाद आबि गेल रही। मैसेज पर गप होइत रहय। एक दिन मैसेज आयल "की आसमर्द पढ़बो केलहुँ ?"
—"हँ" । जबाब लिखने रहियनि।
—"केहन लागल ?" पुनः मैसेज आयल।
—"हमरा त' विचारक स्तर पर बड्ड नीक लागल।" हम फेर लीखि पठौलियनि।
—"अच्छा" ओकरा बाद ओहि दिन कोनो गप नै भेल।

किछु दिन बाद गर्मी छुट्टी मे गाम जेबाक रहय। मैसेज केलियनि जे हम मनोज जी आ शारदा जी पाँच मई(2018) केँ पटना आयब। ओहिये दिन साँझखन आयब भेंट करय। ओ जबाब लिखलनि - "सब तरहेँ बहुत प्रतिकूल स्थिति मे छी। आहाँलोकनि आयब ओहि सँ बेसी हरखक बात आर की भ' सकैत अछि हमरा लेल। एखने सँ एक अढ़ैया जल, लोटा आ गमछा राखल रहत हमर दुआरि पर आ आयल जाओ आयल जाओ गुँजैत रहत।"
—"आ पानक की-कोना"। हम जबाब लिखने रहियैक।
—"अहाँ साफे बूड़ि छी!  ओ त' घरे मे छैक। आउ ने।" मैसेज भेटल हमरा। आ हम बिहुँसय लागल रही मैसेज पढ़ि-पढ़ि। 

आ आब सिर्फ मैसेजे टा पढ़ि सकैत छी।

5

"साहित्यिक परिदृश्यक अंतर्गत केवल रचने टा नै अबैत छैक। रचनाकार सबहक बीचक आपसी संबंध ओ संवादक स्वरूप ओ गुणवत्ता; सरकारी ओ गैरसरकारी संस्थान सबहक चरित्र ओ कार्य प्रणाली; आयोजन ओ समारोह सबहक स्वरूप ओ गुणवत्ता; सोसल मीडियाक हस्तक्षेपक स्तर; परिवेश मे रचना सँ इतर तत्व सबहक बढ़ैत भूमिका; कुकुरालुझक वातावरण; अफरा-तफरी, आपाधापी, डेग-डेग पर चालाकी, चालबाजी, चापलूसी, भँटैति, भंनरैति, चकमाबाजी, झूठ, फरेब ओ कपटताक बोलबाला, आत्म-प्रचारक निर्घिन्न ओ उन्मादपूर्ण घटाटोप आ आरो अनेक बात...की एहि सब सँ एहन स्थिति बनैत छैक जे कि सृजन मात्रक लेल अनुकूल हो-उत्कृष्टताक बात त' दूर रहय दियौक ? 'नैतिक शुद्धता ओ उच्चता' कतेक हद धरि एहि परिदृश्य मे देखना जाइत अछि ?"

एकदिन भोरे उठल रही त' एतेक वृहद मैसेज आयल छल। पढ़ि क' बड़ी काल धरि विचारैत रही एहि सब विचारणीय प्रश्न पर। एखनो बिचारि रहल छी मुदा आब कोनो जिज्ञासाक समाधान लेल ओ नहि छथि हमरा लग।

ठीके नै छथि की ?

                                                        गुंजन श्री
                                                                                                        

नोट: ई आलेख 'देसिल बयना' मई-19 अंक मे प्रकाशित अछि।

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आह कतेक सुन्दर लिखलहुँ सरक संगक संस्मरण