चैतन्यदेव बंगालक एकटा समर्थ सांस्कृतिक नायक रूप मे प्रसिद्ध भेल छथि। हिनकर जीवनी पढ़ला सँ आ हिनकहि परम्पराक परवर्ती आचार्यलोकनिक साहित्य देखलासँ एतबा अवश्य स्पष्ट होइछ जे हिनक जीवन मे नाट्य-विधाक बेस महत्व छल। नाटक-लीलादिक कतेको आयोजन कएने रहथि। कानाइ नाटशाला त’ हिनकहि सम्पर्क पाबि प्रसिद्ध भेल छल। कहल जाइछ जे चैतन्यदेव जखन कृष्णलीलाक आयोजन करथि त’ कएक टा सहयोगी भक्त मे तद्पात्रीय आवेश आबि जाइत छल। कृष्णक नृत्य-अभिनय त’ ततेक विराट ओ विस्तीर्य छल जे स्वयं नटराज महादेव हिनक महारास मे शामिल भ’ हिनक नृत्य-अभिनयादिक आनंद प्राप्तिक हेतु स्त्रीरूप पर्यन्त धारण करबा लेल विवश भ’ गेलाह। हिनक संगीत-नृत्य-अभिनयादिक दक्षताक पुरस्कारकस्वरूप वेदव्यास हिनका‘नटवरबपुः’(1) सेहो कहलनि। मुदा मिथिलामे एहन कोनहु सांस्कृतिक नायक नहि भेलाह जनिकर नाट्य-चेतना आ कि ठाढ़ कएल गेल परम्परा पर गर्व कएल जा सकय।
रामलीला, रासलीला आ कि गौरलीलाक उद्भव क्षेत्र किंवा प्रमुखतासँ मंचन-प्रदर्शन होमयबला क्षेत्र अछि-बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, झारखंड,उत्तरांचल, उड़ीसा, आसाम, बंगाल, नेपाल आदि| एतहुक मुख्य भाषा अछि मैथिली, भोजपुरी, मगही, हिन्दी, उड़िया, असमिया, बांगला, नेपाली आदि। मुदा एहि सभ भाषा-साहित्यक ई त्रसदी अछि जे लीला-मंचनकेँ नाटकक आ कि साहित्यक अंगे नहि मानल गेल। मैथिली, बांगला, हिन्दी, असमिया प्रभृतिक साहित्यक इतिहासमे एकहु अध्याय, एकहु पाँति रामलीला-रासलीला किंवा गौरलीलाक निमित्त नहि लिखल गेल अछि। दुर्गानाथ झा‘श्रीश’, डा. जयकांत मिश्र, डा. दिनेश कुमार झा (मैथिली साहित्यक इतिहास लेखक), डा. सुकुमार सेन (बांगला साहित्यक इतिहास लेखक) कि विरिंचि कुमार बरुआ (असमिया साहित्यक इतिहास लेखक) लोकनि लीलामंचक रूप-सौन्दर्यक इतिवृत्तिकेँ अछोपे बुझलनि।
डा. प्रेमशंकर सिंह अपन नाट्य-विषयक पुस्तक ‘मैथिली नाटक ओ रंगमंच’ (मैथिली अकादमी, पटना) मे ‘लीला-नाटक’ नामसँ अवश्य चर्च कएलनि अछि। मुदा हिनक एतद्विषयक स्थापना, जाहि क्रममे डा. दशरथ ओझा आ डा. हजारीप्रसाद द्विवेदीक कथनक सेहो उपयोग कएलनि अछि, से भ्रमेक उत्पत्ति मे सहायक होइत अछि। उदाहरणस्वरूप देखल जाय-
(i) रास एवं लीला मे कोनहु भेद नहि। —इएह ‘रासक’-रास आगाँ जा क’प्रयुक्त भेल । (2)
(ii) रास शब्द संस्कृत भाषाक नहि अछि, प्रत्युत देशी भाषाक थीक— रासकेँ देशी होयबाक कल्पना एहू बातसँ होइछ जे रासो आर रासक नामसँ राजस्थानी मे एकर प्रयोग भेटैछ, आर ओ रास जकर विशेष सम्बन्ध गोपी लोकनिसँ अछि। (डा. दशरथ ओझाक कथन) (3)
(iii) भागवत महापुराणमे कृष्णलीलाक जाहि परम्पराक अभिव्यक्ति भेल,ओहिसँ भिन्न एक आर परम्परा छल जकर प्रकाश जयदेवक ‘गीत-गोविन्द’मे भेल। भागवत-परम्पराक रासलीला शरद पूर्णिमाकेँ भेल छल, गीत-गोविन्द-परम्पराक रास वसंत कालमे भेल। (डा. हजारीप्रसाद द्विवेदीक कथन) (4) उपर्युक्त पहिल कथनक विवेचना हेतु प्रथमतः एहि पद ‘रास’ आ ‘लीला’क संक्षिप्त व्याख्या अपेक्षित । एहिसँ एतबा अवश्य स्पष्ट भ’ जएबाक चाही जे रास आ लीला एक नहि अछि, रास आ रासक एक नहि।
‘रसानां समूहो रासः।’ अर्थात् रसक समूह रास अछि-से एकर सैद्धान्तिक परिभाषा अछि । एकरहि स्पष्टीकरण आ व्याख्यायित करैत श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दारजीक कहनाम छनि- ‘जिस दिव्यक्रीड़ा मे एक ही रस अनेक रसों के रूप में होकर अनंत-अनंत रसका समास्वादन करे, एक रस ही रससमूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं आस्वाद्य-आस्वादक, लीला, धाम और विभिन्न आलम्बन एवं उद्दीपन के रूप मे क्रीड़ा करे-उसका नाम रास है।’ (5)
जगदीशचन्द्र माथुर रासकेँ मण्डलाकार नृत्य-अभिनय कहैत छथि जकर केन्द्रीय पात्र कृष्ण आ मण्डलीय पात्र ब्रजवनिता लोकनि होइत छलीह ।(6)रास शब्दक शब्दकोशीय स्थापना दैत वामन शिवराम आप्टे ‘संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश’मे रास शब्दक अर्थ दैत छथि-एक प्रकार का नाच जिसका अभ्यास कृष्ण और गोपिकाएँ करती थीं, कृष्ण और वृन्दावन की गोपिकाओं का वर्तुलाकार नाच । (7)
एकटा अन्य लक्षणक अनुसार एक-दोसरक कंठमे बाँहि द’क’ त’ कखनो एक-दोसरक हाथ पकड़ि नर्तक-नर्तकी लोकनिक मण्डलाकार नृत्यकेँ रास कहल जाइछ-
नटैर्गृहीतंकण्ठीनामन्यो{न्यात्तकराश्रियम्।
नर्तकीनां भवेद्रासो मण्डलीभूय नर्तकम्।। (8)
गौड़ीय वैष्णावाचार्य श्रीसनातन गोस्वामीक अनुसार परम (आलैकिक) नित्य रसक समूह रास थिक- रासः परमरसकदम्बमयः इति यौगिकार्थः। (9)
एकर बाद ‘लीला’केँ देखल जाय। वामन शिवराम आप्टे एकर अर्थ खेल,क्रीड़ा, विनोद, आनंद, प्रीतिविषयक मनोविनोद, प्रभृति देने छथि ।(10)श्रीवल्लमाचार्य अपन सुबोधिनी टीकाक तृतीय स्कन्ध (श्रीमद्भागवत महापुराण) मे लीलाक व्याख्या करैत छथि-‘लीलानाम् विलासेच्छा,कार्यव्यतिरेकेण कृति मात्रम् ।’ उज्ज्वलनीलमणिक रचयिता श्रीरूपगोस्वामी लीलाकेँ परिभाषित करैत कहैत छथि-‘प्रियानुकरणं लीला रम्यैर्वेशक्रियादिभिः’-मनोहर वेष, क्रियादि सँ प्रिय केर अनुकरण लीला अछि।(11) एकरहि व्याख्यारूप स्वयं श्रीरूपगोस्वामी लिखैत छथि-‘‘अप्राप्तवल्लभसमागमनायिकायाः सख्याः पुरोऽत्र निजचित्तबिनोद्बुद्ध्या । आलापवेशगतिहास्य विलोकनाद्यैः प्राणेश्वरानुकृतिमाकलयन्ति लीलाम् ।’
श्रीमद्भागवतक विश्वप्रसिद्ध टीकाकार श्रीधरस्वामी रासपंचाध्यायीक मंगलाचरण मे रास केँ ‘लीला’ कोटि मे राखि एकरा कंदर्पविजय लीला कहैत छथि-
ब्रह्मादिजयसंरूढ़दर्पकन्दर्प दर्पहा ।
जयति श्रीपतिर्गोपीरासमण्डलमण्डितः।। (12)
एकटा आओर लक्षणक अनुसार रसक समूहकेँ रास आ एहन रसमयीक्रीड़ाकेँ रासलीला कहल जाइछ-
‘रसानां समूहो रासस्तन्मयी क्रीड़ा रासक्रीड़ा’ (13)
किछु विद्वानक मत छनि जे ऋग्वेद (3/3/55-14) मे सेहो रासलीलाक उल्लेख अछि। मुदा स्पष्टरूपेँ रासलीलाक वर्णन पुराणमे प्राप्त होइत अछि । महाभारतक परिशिष्ट ‘हरिवंश’ (विष्णुपर्व 20/24-35) मे सर्वप्रथम शरदकालीन रासलीलाक वर्णन अछि । तत्पश्चात् सबसँ प्राचीन पुराण विष्णुपुराण (अंश 5, अध्याय-13), ब्रह्मपुराण (अध्याय-189), पद्मपुराण (उत्तरखंड, अध्याय-27), ब्रह्मवैवर्तपुराण (कृष्णजन्म खंड, अध्याय-52, 53, 66) मे सेहो रासलीलाक वर्णन अछि।
संस्कृत नाटक आ काव्य ग्रंथ-बालचरित (भास), हर्षचरित (बाणभट्ट),शिशुपाल बध (माघ), गोपालचम्पू (श्रीजीव गोस्वामी), गोविन्दलीलामृतम् (श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी) प्रभृतिमे सेहो रासलीलाक वर्णन अछि । रास आ लीलाक फराक-फराक अस्तित्व, गुण, चरित्र आ व्याख्याक अछैत दुनूकेँ एकहि कोना कहल जा सकैछ । श्रीमद्भागवत महापुराणक दशम स्कन्धक 29 सँ 33म अध्याय धरिकेँ रासपंचाध्यायी कहल जाइछ । एहि पाँचहुँ अध्यायक अंतमे ‘रासक्रीड़ा’ शब्द आ पंचाध्यायीक पहिल अध्याय (29म अध्याय) हेतु हिन्दीमे ‘रासलीला का आरंभ’ लिखल गेल अछि । जँ रास आ लीला समानार्थक होइत त’ ‘रासलीला’ पद मे पुनरावृत्ति दोष होइत देखि महर्षि वेदव्यास प्रणीत एहि महापुराणक विद्वान अनुवादक-सम्पादक लोकनि द्वारा ‘रासलीला’ पद नहि लिखल जाइत ।
‘रासक’ आ ‘रास’ सेहो समानार्थक नहि भ’ सकैछ । नाट्यशास्त्रनुसार‘रासक’ एकटा विनोद प्रधान उपरूपक अछि जकर नायक मूर्ख मुदा नायिका विदुषी होइछ । ई एक अंकक पाँचपात्रीय नृत्यप्रधान उपरूपक अछि । मुदा ‘रास’क नायक संगीत-नृत्य-अभिनयादि दक्ष (कृष्ण) छथि । एकर मण्डलाकार नृत्य, शास्त्रीय आ ध्रुवपदक गायन, आदि एकटा प्रमुख विशेषता अछि । ‘रास’क नायिका (गोपिका) लोकनि सेहो नृत्य-संगीत-अभिनयादि मे दक्षा होइत छलीह, तेँ ने कृष्णक वंशीवादन सुनि सम्मोहित भ’कृष्ण-मिलन आ कृष्णान्वेषण हेतु उपस्थित होइत छलीह ।(14)
डा. दशरथ ओझाक कथन-‘रास संस्कृत भाषा नहि देशी भाषाक अछि’, सँ असहमत भेल जा सकैए । ‘रास’क विस्तारपूर्वक चर्च श्रीमद्भागवत मे भेल अछि । भारतीय परम्परानुसार श्रीमद्भागवतकेँ पाँच हजार वर्ष पुरान होयबाक चाही ।(15) एहिए ग्रंथक दशम स्कन्धमे अध्याय 29 सँ 33 धरि (रासपंचाध्यायी)क प्रत्येक अध्यायक अंत करबाकालक वाक्य मे ‘रास’शब्दक उल्लेख अछि । 33म अध्यायमे 5 ठाम ‘रास’ शब्द आयल अछि-रासक्रीड़ा (16), रासोत्सवः(17) रासमण्डल(18), रासपरिश्रान्ता(19) आ रासगोष्ठ्याम (20) । ‘रास’ शब्दकेँ महर्षि वेदव्यास द्वारा प्रयोगाधिक्यसँ कोना कहल जाय जे ई संस्कृत भाषाक शब्द नहि । सातम शताब्दीक नाटककार भट्टनारायण अपन ‘वेणीसंहार’ नामक संस्कृत नाटकमे ‘रास’ शब्दक चर्च आ उपयोग सेहो कएने छथि । (21)
शाब्दिक रूपसाम्यक कारणेँ ‘रास’ केँ ‘रासो’ संग नहि जोड़ल जा सकैछ । रासो वीरगाथात्मक काव्य अछि जे कि साहित्यिक प्रबंध रूप मे आ वीरगीत (वैलेड्स)क रूप मे उपलब्ध अछि। यथा-खुमानरासो, बीसलदेवरासो,पृथ्वीराजरासो प्रभृति। किछु विद्वान ‘रासो’क सम्बन्ध ‘रहस्य’सँ जोड़ैत छथि मुदा आचार्य रामचन्द्र शुक्लक अनुसार- ‘बीसलदेव रासो में काव्य के अर्थ में ‘रसायण’ शब्द बार-बार आया है। अतः हमारी समझ में इसी ‘रसायण’ शब्द से होते-होते ‘रासो’ हो गया है । (22)
अभिप्राय एतबे जे रासो वीरगाथा अछि जाहि मे मुख्य छन्द कवित्त, दूहा,तोमर, त्रेटक, गाहा, आर्या प्रभृति अछि । रासोक ई तत्व सब ‘रास’मे त’नहिए अछि संगहि ‘रास’ वीरगाथा रूपक सेहो नहि अछि तेँ ‘रास’ आ‘रासो’क साम्य सेहो निरर्थके सन अछि । दुनूक कथावस्तु आ तकर चरित्र सेहो दू प्रकारक, दू कोटिक आ दू स्तरक अछि । खुमानरासोमे खुमानक 24युद्धक वर्णन अछि । कालभोजक बाद खुमान चित्तौड़क गद्दी पर बैसल । ओही समय मे बगदादक खलीफा अलमामूँ चढ़ाई कएलक । चित्तौड़क रक्षा हेतु मारिते रास राजा आबि गेल । बीसलदेव रासोमे अजमेरक चौहान राजा बीसलदेव मुसमानक विरुद्ध कएक टा युद्ध कएल, दिल्ली आ हाँसीक प्रदेशकेँ अपना राज्यमे मिलाओल तकरे सभक वर्णन अछि । पृथ्वीराज रासोमे आबूक यज्ञकुंडसँ चारिटा क्षत्रिय कुलक उत्पत्ति आ चौहानक अजमेरमे राजस्थानसँ पृथ्वीराजकेँ पकड़य धरिक विस्तारपूर्वक वर्णन अछि । मुदा रासक कथावस्तु अछि- कृष्णक वंशीवादन, वंशीध्वनिसँ विमुग्धा-संगीतमर्मज्ञा गोपिकालोकनिक अभिसार, कृष्णक संग गपशप, राधाक संग अन्तर्धान, पुनः प्राकट्य, गोपीलोकनि द्वारा वसनासन पर बैसब,गोपीलोकनिक कूटप्रश्नक उत्तर, रासनृत्य, क्रीड़ा, जलकेलि, वनविहार आदि। कहल जा सकैए जे ‘रासो’ आ ‘रास’ दूनूक कथावस्तु मे कोनहु स्तरसँ मिलान नहि अछि तेँ एहि दुनूकेँ एकरूप मानब भ्रामक अछि । डा. दशरथ ओझाक भाषा-वैज्ञानिक चेतना ओ आग्रह पर शंका त’ कएले जएबाक चाही जे मैथिलीक प्रतिए ‘हिन्दी की एक शाखा’,(23) ‘प्राचीन मैथिली भाषा पूर्वी हिन्दी का एक रूप है’,(24) उमापति मिश्र का यह नाटक(पारिजात-हरण) संस्कृत और हिन्दी मिश्रित शैली का सर्वप्रथम प्रमाण है । इस नाटकमे वार्तालाप की भाषा संस्कृत है किन्तु समस्त गीत हिन्दी में लिखे गए हैं,(25)प्रभृति धारणा रखने छथि ।
डा. हजारीप्रसाद द्विवेदीक कथन-‘भागवत परम्पराक रास शरदपूर्णिमाकेँ आ गीतगोविन्द परम्पराक रास वसंतमे भेल’- सेहो भ्रामक लगैए । सम्पूर्ण कृष्ण-साहित्य मे एकहि टा शारदीय पूर्णिमाक महारासक चर्च भरल अछि । वसंतकालीन जाहि ‘रास’ केर उल्लेख द्विवेदीजी करैत छथि से वस्तुतः‘विहार’ कोटिमे अबैत अछि ‘रास’ कोटि मे नहि । रास आ विहार दुनूक दू अर्थ ओ अभिप्राय । क्रीड़ा आ मनोविनोदक तत्व प्रायः उभयनिष्ठ मुदा रासमे नृत्य-संगीत-अभिनय प्रभृति तत्वक आवश्यक उपस्थिति रहैछ जकर कि विहारमे प्रायः अभाव सन किंवा अल्पता सन । रासक अपेक्षा विहारमे मर्यादाबन्धन अपेक्षाकृत बेसी शिथिल । तेँ त’ एकरा विहार-लीला सेहो कहल जाइछ । (26) जयदेव 12म शदीक उत्तरार्द्धक कवि छथि जे राजा लक्ष्मणसेन (1180-1206 ई.)क राजसभाक कवि रूपमे ख्यात छलाह । अपन गीत गोविन्दमे विहारक वर्णनक क्रममे एकाध ठाम ‘रासरसे’ (27),‘रासोल्लास’ (28)प्रभृति शब्दसँ रासक संकुचित संकेत कएने छथि । महाप्रभु श्रीचैतन्यदेव मतानुयायी गौड़ीय वैष्णवाचार्य लोकनि एकटा सीमाधरि वैधी विहारकेँ रासक प्रभेद मानने छथि । त’ ताहि आधार पर श्रीप्रेमदास शास्त्रीक स्थापनासँ सहमत होइत एतबा मानल जा सकैछ जे भक्तकवि विल्वमंगल रचित‘श्रीकृष्णकर्णामृत’ एवं महाकवि जयदेव कृत ‘गीत-गोविन्द’मे रासक गायन भेल अछि । (29) तथापि एतबा आधार पर रासक पृथक परम्परा कोना कहल जा सकैत अछि । रास आ विहारमे तात्विक अंतरक अछैत ओकर आंशिक समानताक कारणे जँ रास-गायनक ब्याजेँ कोनहु पृथक परम्पराकेँ स्वीकार कएल जाय तँ ‘नित्यरास’क अतिरिक्त शरद महारास, कार्तिक महारास,बसन्त रास प्रभृति परम्पराकेँ स्वीकार कएल जा सकैछ ।
व्रज-साहित्यक किछु आधुनिक विद्वान लोकनि रासलीलाक मंचीय रूपकेँ रासाभिनय आ कि रासानुकरण कहब बेसी समीचीन बूझैत छथि । अभिप्राय छनि जे कृष्णकालक बाद रासानुरूप समस्त उद्योग रासाभिनय अछि । जेँ कि पूर्वहिसँ चलि आबि रहल शब्द ‘रासलीला’क प्रयोग होइत रहल तेँ एकरे प्रचलन रहि गेल ।
एतेक रास उपलब्ध सामग्री आ साक्ष्यक आधार पर एतबा त’ अवश्ये कहल जा सकैछ जे रास, रासक आ लीला समानार्थक नहि अछि।
संदर्भ-संकेत
1- श्रीमद्भागवत महापुराण – 10/21/5
2- मैथिली नाटक ओ रंगमंच (मै-अ-, पटना) – पृ–43
3- ’’ ’’ ’’ ’’ ’’ – पृ–44
4- ’’ ’’ ’’ ’’ ’’ – पृ–44
5- श्रीमद्भागवत महापुराण – 10/33/40म श्लोकक व्याख्या,
6- परम्पराशील नाट्य, (ज-च- माथुर) – पृ–24
7- संस्कृत-हिन्दी शब्दकोष (वा-शि- आप्टे) – पृ–921,
8- श्रीमद्भागवत महापुराणक वैष्णवतोषणी टीका
9- वृन्दावन संदेश (सं–प्रेमदास शास्त्री) – 18/1
10- संस्कृत-हिन्दी शब्दकोष (वा- शि- आप्टे) – पृ–946
11- उज्ज्वलनीलमणि (श्रीरूप गोस्वामी), अनुभाव प्रकरणम्-28,
12- वृन्दावन संदेश (सं– प्रेमदास शास्त्री)- 18/1
13- ’’ ’’ ’’ ’’ ’’ – पृ–18/1
14- श्रीमद्भागवत महापुराण – 10/29
15- संस्कृत साहित्य का इतिहास (आ- ब- विद्याभूषण), पृ–89
16- श्रीमद्भागवत महापुराण – 10/33/2
17- ’’ ’’ ’’ – 10/33/3
18- ’’ ’’ ’’ – 10/33/6
19- ’’ ’’ ’’ – 10/33/15
20- ’’ ’’ ’’ – 10/33/16
21- वेणीसंहार (भट्टðनारायण) – 1/21-
22- हिन्दी साहित्य का इतिहास (रामचन्द्र शुक्ल) पृ–35
23- हिन्दी नाटकः उद्भव और विकास- पृ–52
24- हिन्दी नाटकः उद्भव और विकास- पृ–53
25- हिन्दी नाटकः उद्भव और विकास- पृ–48
26- श्रीगोविन्द लीलामृतम् (कृष्णदास कविराज गोस्वामी)) 14म सर्ग,
27- गीत गोविन्द (जयदेव) – 1/416
28- गीत गोविन्द (जयदेव) – प्रथम सर्गक अंतिम श्लोक
29- वृन्दावन संदेश (सं- – प्रेमदास शास्त्री)