उठ मेरी जान…!

आज अहलभोर से ही देख रहा हूँ चहुँओर महिला दिवस की बधाई वाली फेसबुकी तख़्ती लटका लिया गया है ,अधिकांश वैसे मित्रों के द्वारा भी जो व्यक्तिगत जीवन में वो नहीं चाहते या करते हैं जो वो दिखना या दिखाना चाह रहे हैं।
ये तख़्ती लटकाकर खुद को प्रगतिशील और स्त्रियों के स्वतंत्रता और सम्मान के लिए खुद को बहुत चिंतित और सेंसिटिव साबित करने का जो एक फैशन चल पडा है वो बड़ी अजीब स्थिति उत्पन्न कर रहा है। वैसे लोग जो बिलकुल भी नहीं चाहते कि महिलाएँ उस दर्जे में आयें जहाँ वो आना चाहती है, उन्होंने भी अपने गले में समाजवादी (महिलाओं के संदर्भ में) तख़्ती डालकर खुद को भागती हुई भीड़ का हिस्सा बना लिया है।
मेरी एक मित्र आज मुझे बता रही थी कि “मुझे सबसे ज्यादा गुस्सा तब आता है जब ये पुरुष हमारे स्वतंत्रता की बात करते हैं। ये स्वतंत्रता की बात करना ही साबित करता है कि वे आज भी यही सोचते हैं कि हम आज भी परतंत्र है। जो परतंत्र (हालाँकि उसने ‘गुलाम’ शब्द प्रयोग किया था) है उसे ही न स्वतंत्र होने की जरुरत है, हम लोग तो हैं ही स्वतंत्र।” उसकी ऐसी बाते सुनकर मैं बहुत खुश हुआ। मन तो समझिए की कुलाँचे मारने लगा। एकदम सही बात बोली। अरे भाई आप ये सोचना और बोलना ही छोड़ दीजिए कि महिलाओं को स्वतंत्रता और अधिकार दिलाना है। असल में क्या है कि अगर आप सोचने वाली क्रिया को थोड़ा विराम देंगे तभी आप कुछ सार्थक काम करेंगे। आप तो साहब उम्र गवां देते हैं सिर्फ सोचने में। चीजें तो आपकी, आपके क्रिया में आती ही नहीं है कभी।
मेरे ख़्याल से स्त्रियों की जो सबसे बड़ी दुश्मन है या यूँ कहें कि उनके लाइफ का जो सबसे बड़ा विलेन है वो ये है कि वो आश्रित होना या रहना चाहती है। ये आश्रित होकर रहने से ही उनकी मानसिकता में ये ठोंक के घुसा दिया जाता है कि तुम्हारा हरेक काम पुरुषों से होकर ही गुजरता है। और ये बात उन छोटी बच्चियों के भेजे में घुसाने का काम जो करती है वो है एक दूसरी स्त्री जो की उसकी माँ या माँ जैसी ही पोस्ट वाली होती है। मैंने कई बार देखा है कि पिता तो खूब उन्मुक्त रहना और रखना चाहता है बेटियों को लेकिन माँ बीच में आकर इन बच्चियों को ज़माने भर का ठेका अपने ही सर पे उठाने वाली लड़कियाँ और फिर ये लड़कियाँ कब इसी स्थिति से गुजरती हुई खुद को टिपिकल और संस्कारी महिला साबित करते करते उम्र गुज़ार देती हैं पता ही नहीं चलता है।
आज ज्यादातर लोग आपको सेमिनारी बातें करते मिल जायेंगे। जबकि इनके हलक में झाँकिये थोड़ा महीन होकर तो दिखेगा कि ज्यादातर तख़्ती लटकाने वाले लोग व्यक्तिगत जीवन में खुद अपने उलट हैं। लेकिन इसका ये कतई मतलब नहीं है कि सब वैसे ही हैं। कुछ लोग हैं जो जेन्यून है। और जो असली (मार्के वाली) लोग हैं वो ढिंढोरा नहीं पीटते हैं किसी खास दिन को। वो रोज जीते हैं अपने बच्चियों और अपने परिवार/समाज के महिलाओं के समुचित और धरातलीय सुधार और विकास के लिए। सीधा सा तो हिसाब है कि सारी बातों की शुरुआत अगर हम खुद अपने घर से करें तो ज्यादा अच्छा है। और यही “अच्छा होना” हमें अच्छाई से भरे माहौल में परिवर्तित कर देगा। मुझे कैफ़ी आज़मी की एक पंक्ति याद आ रही है जो कि आप गर ना भी इजाजत देंगे तो भी सुनाऊंगा और वो ये है कि-
“बनके मिसाल उभरना है तुझे,
उठ मेरी जान, मेरे ही साथ चलना है तुझे”।
लेखक :- गुंजनश्री
                                                                 

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