हरे कृष्ण ! — भीमनाथ झा

हरेकृष्णजी हमर गौआँ रहथि। घरक दूरी तते नहि, मुदा टोल दू। हमर घर पुबारि टोलक पुबरिया छोरसँ कने पच्छिम आ भगवतीस्थान पछबारि टोलक पछबरिया छोर (धार)सँ कने पूब। बाट दछिनबारि टोल होइत। पहिल–नवीपोखरिक पुबारि कातक उतरबरिया बाटमे लक्ष्मीनारायण मन्दिर आ श्रीकृष्णबाबू (पण्डितजी)क दलानक सोझाँसँ जाइत। दोसर–नवीपोखरिसँ पच्छिम घुल्लीबाबू (मुखियाजी) अधवा योगाबाबू (प्रख्यात साहित्यकार योगानन्द झा)क दलानक आगाँ द'क'। गाममे घर किनको कत्तौ रहनु, सभकेँ भगवतीस्थान गेनहिँ। विद्यार्थी सभ आ नवका तूर तँ दू-दू , तीन-तीन खेप भ' आबय। हम जहिया पण्डितजीक दलानवला बाट पकड़ी आ ओ भेटि जाथि तँ प्रणाम करियनि, कुशल-समाचार पुछथि। बाटोमे भेटथि तँ गोड़ लगियनि। ओ एक मिनट ठाढ़ भ'क' किछु टोकि देथि। भव्य व्यक्तित्व, हृष्ट-पुष्ट, लम्बाउन कद, प्रसन्नचित्त। बहराथि तँ सीटल धोती-कुर्ता, तौनी अनिवार्य। बाबूबरही हाइ स्कूलक लब्धप्रतिष्ठ संस्कृताध्यापक रहथिन।


प्रेमनाथ भाइ– हमर पितियौतापितियौत, जे हमरो पढ़ौने– मिडिल स्कूलमे शिक्षक छला। ताहू दिन बड़ विद्यार्थी। चारिमसँ सतमा धरिक छमाही आ वार्षिक परीक्षामे कापी बुझू टाल लागि जाइन। ट्यूशनो रहनि। तेँ किछु कापी हमरो देथि देख'। एक बेर सतमाक वार्षिक परीक्षाक कापीक बंडल देलनि। देखबाक क्रममे दू टा कापी हमरा ततेक नीक बुझायल जे ओहिपर नम्बर हम नहि देलिऐ। कापी भाइकेँ देखबैत कहलियनि जे अहीँ नम्बर दियौ, हम नहि निश्चय क' पबै छी। ओ विहुँस' लगला आ कहलनि– आब कहू अहाँ जे अपना मने ककरा बेसी नम्बर देतिऐ ? कहलियनि हम। फेर विहुँसला आ कहलनि– ठीके, ई दुनू विद्यार्थी बड़ ब्रिलियेन्ट अछि । अहाँक एसिसमेंट सही अछि। दियौ अहीँ नम्बर। किछु दिनक बाद बुझलिऐ जे पण्डितजीक बालक (हरेकृष्ण) फस्ट कैलथिन आ सेकेंड भेला आशू, जे हुनक अभिन्न मित्र छलथिन। आशूजीक मूल नाम उग्र नारायण चौधरी थिकनि। ओहो बहुत तेज । आर. के . कालेजमे बोटनीक यशस्वी प्रोफेसर। आब रिटायर्ड। हमर बड़ प्रिय, यद्यपि सम्पर्क बड़ कम। आशुएजी कहै छियनि। हुनक बालक छथिन श्री शुभेन्दु शेखर, जनिका बेसी गोटे चिन्हिते हेबनि।

गामसँ मिडिल कैलाक बाद हरेकृष्णजीकेँ पण्डितजी अपना संग बाबूबरही ल' गेलथिन। ओतहिसँ फस्ट डिवीजनमे मैट्रिक कैलनि। जखन आइ.एससी मे उच्च फस्ट डिवीजन भेलनि, तकर बाद गाममे ई चर्च होब' लगलै जे पण्डितजीक बालक बड़ तेजस्वी छथिन। गामक नाम रखथिन। इंजिनियरिंगमे एडमीशन लेलनि।

कालेज-जीवनमे गामसँ सम्पर्क घनिष्ठ रहलनि, किन्तु सामाजिक नहि छला, माने– युवक संघ, उमापति पुस्तकालय, भगवतीस्थानक चहल-पहल, सभा-गोष्ठीमे नहि देखल जाथि। गामक वेदाबाबू (विद्वान् कवि), ताराबाबू (विलक्षण आशुकवि), कहियो काल मधुपजी, किरणजी आबि जाथिन तँ कविगोष्ठी जमि जाइ। ताहूमे हिनका नहि देखियनि।

कालेजमे अभिभावक हिनक पितियौत भाइ प्रो. बालकृष्ण बाबू प्रायः रहल हेथिन। ओ कटिहार कालेजमे अङरेजीक प्रोफेसर आ हेड छलथिन। ओ तीन भाइ। दोसर राधाकृष्ण बाबू सप्लाइ विभागमे पदाधिकारी रहथिन आ तेसर तुलाकृष्ण बाबू– ल.ना. मिथिला विश्वविद्यालयक पी.जी. विभागमे इतिहासक यशस्वी प्रोफेसर (आब अवकाशप्राप्त) छथिन। तीनू गोटेक अभिभावक पण्डितजी। हुनके प्रसादात् ओ तीनू भाइ सुयोग्य भेला। स्वभावतः हरेकृष्णजीक उच्चशिक्षा लेल तीनू पितियौतक विशेष निगरानी रहैत छलनि। मुख्यतः बालकृष्ण बाबूक।

तावत हम कोआपरेटिव डिपार्टमेंटमे आबि गेल रही। बेगूसरायक बखरी ब्लाकमे पोस्टेड रही। निजी काजक सिलसिलामे बालकृष्ण बाबूक ओत' कटिहार गेलहुँ। ओहि दिन माझिल भाइ राधाकृष्ण बाबू आ हरेकृष्णजी सेहो रहथिन। रातिमे संगहि भोजनपर तीनू भाइ ओ आ हम बैसै गेलहुँ। भोजने कालमे बालकृष्ण बाबूकेँ पुछलियनि जे भोरमे दरभंगा दिसक ट्रेन कय बजे छै? ओ हरेकृष्णजी दिस तकलथिन। बेचारे ई सकपका गेला। बजला– छौ-सात बजे हैबाक चाही। ताहिपर बालकृष्ण बाबू अङरेजीमे कहलथिन– '' It's an ordinary measure of one's common sense. अयँ औ हरेकृष्ण, अहाँ एत्ते गाम जाइ-अबै छी, तैयो ट्रेन टाइम नहि बुझल अछि ?'' बेचारे ओ की बजितथि ? भोरे स्टेशन जाक', पता लगाक' कहि देलनि। ई 1966 क घटना थिक। ठीक-ठीक कही तँ आठ जनवरीक रातुक। एके बेर प्रोफेसर साहेबक मुँहसँ बहरायल अङरेजीक ओ एक लाइन हमर चित्तमे तेना भ'क' चिपकि गेल जे आइ धरि मने अछि– प्रायः हुनक बजबाक खास टोनक कारणे। अस्तु।

इंजिनियरिंगमे गेना किछुए दिन भेल छलनि कि गाममे ई बात गनगनाय लगलै जे पण्डितजीक बालक पढ़ाइ छोड़ि देलथिन । कहाँदन पथभ्रष्ट भ' गेलथिन, बुड़िया गेलथिन अछि । अनेक प्रकारक गप्प बसातमे उड़िआय लगलै । एक होनहार युवाक मति मारल जायबकेँ भरि गामक हेतु बड़का हानि मानल जाय लगलै । ताहिपर, बादमे जाक', भटसिम्मरि काण्ड से भ' गेलै ।

निकटता पहिनहुँ नहि छल, आब तँ आर दूर भ' गेला । हमहूँ कोआपरेटिव छोड़ि, राँचीक पानि पीबि, 1973 क फरवरीमे मिथिला मिहिरक नोकरीमे पटना आबि गेलहुँ । तकर बाद ई हमरा भेट देब' लगला । पटना आबथि तँ मिथिला मिहिर आबि बैसथि । तावत ई मैथिलीसँ, कमसँ कम, देखार रूपेँ नहि जुड़ल रहथि । पटनामे हिन्दीक लेखक-कविक सम्पर्कमे रहथि, ओम्हरे अँटकथि । कोनो मैथिली कवि-लेखकक प्रसंग जिज्ञासा नहि करथि । केवल यात्रीजीक बेर-बेर नाम लेथि आ हुनक मैथिली पोथीसभ हमरासँ ल' जाक' पढ़थि । एकाधे आन पोथी, जेना स्वरगंधा, मैथिली अकादमीक 'कविता-संग्रह' ल' गेल रहथि । एक बेर हुनका हम साफ-साफ कहलियनि– '' औ हरेकृष्णजी, आब अहाँ पोथी माङब तँ नहि देब । अहाँ पोथी तँ ल' जाइ छी, मुदा घुरबै नहि छी ।'' ओ बेचारे गंभीर भ' गेला । कहलनि तँ नहि किछु, मुदा प्राते भेने सभ पोथी लेने ऐला ।

एक बेर कहलनि– हम कविवर सीताराम झाक सभ रचना पढ़' चाहै छी । हमर हिन्दीक मित्र लोकनि सेहो पढ़' चाहै छथि । नागार्जुनकेँ जनवादक बीया अपन काव्यगुरु सीतारामे झासँ तँ ने भेटलनि– ई एम्हर बहसक विषय छै । तेँ हुनक रचनाकेँ ताहि दृष्टिसँ परख' चाहै छी हमहूँ, ओहो लोकनि चाहै छथि । कविवरक पोथी सभ देलियनि, ओहो पढ़िक' घुरा देलनि ।

जेना कहलहुँ, मैथिली कवि सभक प्रसंग कहियो चर्चा नहि करथि । बादमे कुलानन्दजीक प्रसंग पुछ' लगला । प्रशंसो कर' लागथि ।

तहिना, एक दिन अयला आ कहलनि– देखियौ तँ भाइ ई । आ कागज बढ़ा देलनि । मैथिली कविता छलनि । एक बेर तँ सरसरी नजरिसँ पढ़लिऐ, मुदा दोहराक' पढ़ब सेहो जरूरी लागल । स्थिरसँ देखलिऐ । तखन कहलियनि– द' दिय' हमरा । संकोचपूर्वक कहलनि– मिहिरमे छप'जोग छै ? आब हमहूँ गम्भीर भेलौं । मनमे भेल, स्वर तँ उग्रवादी छै । शीर्षको भड़काउ छै । मिहिरक नीतिक अनुकूल तँ नहिएँ छै । तैपरसँ वर्तनी ! हरेकृष्णजी कहलनि जे वर्तनी बदलि जेतै तँ चौपट भ' जेतै । से हमरो भेल । ई छाप' लेल तँ नहि कहने रहथि, पढ़' ले' देने रहथि । छपबाक बात तँ हमहीँ उपकरिक' कहलियनि । जे हेतै से देखल जेतै । हुनका कहलियनि– हम राखि लेलौं । अगिला अंकमे द' देलिऐ । चौचङ तँ रहबे करी, मुदा कतौसँ सिकाइतक स्वर नहि आयल । ओ कविता– 'हे लिय' ई धधराक चेरा !' हिनक पहिल मैथिली कविता रहनि, जे दरभंगा महाराजक प्रेससँ मिथिला मिहिरमे छपल रहनि । मिहिरमे आरो कविता छपल छनि की नहि, से स्मरण नहि अछि ।

1982क नवम्बरमे हम दरभंगा आबि गेलौं । ता ई मैथिलीसँ नीक जकाँ जुड़ि गेल रहथि । दरभंगामे भेटो बेसी होब' लागल । नव धाराक कवि लोकनिक प्रति जिज्ञासु देखियनि । धूमकेतुजीक साहित्यक प्रति आदरभाव रहनि । राजमोहनजी, कुलानन्दजी, मोहन भारद्वाज, पुनः अशोकजीसँ घनिष्ठता बढ़लनि । हम पटना छोड़ि देने रही, तेँ विशेष नहि कहि सकै छी । एक बेर पटना गेल रही तँ ओही साँझ अशोकजीक डेरापर हिनक एकल काव्यपाठक कार्यक्रम निर्धारित रहनि । ताहिमे हमरो देखि हिनक मुँहपर अतिरिक्त प्रसन्नताक भाव बुझायल । घंटाभरिसँ ऊपर काव्यपाठ कयलनि ।

'एना त नहि जे' बड़ आबेससँ देने रहथि । कहने रहथि जे पाब्लो नेरुदाक सय-डेढ़ सय कविताक अनुवाद कयल राखल अछि । कोना छपत ? साहित्य अकादेमीसँ नहि छपि सकै छै की ? ओहि ठामक जटिलता बुझौलियनि तँ निराश भ' गेल रहथि । कोनो अनुवादक काज चाहथि । 'राजस्थानी साहित्यक इतिहास' टाक काज भेटि सकलनि । बादमे हम साहित्य अकादेमीक कार्यकलापसँ अपनाकेँ कात क' लेलौं ।

हिनका संग एक बेर सौराठ सभा सेहो गेल छी । ओत'सँ दरभंगा घुरबाक कथाक एक टुकड़ीक उल्लेख महेन्द्र मलंगिया-विषयक निबन्धमे कैने छी, जे किछु गोटेकेँ अवश्य पढ़ल-सुनल होयतनि ।

एक बेर हिनकासँ हम मदतियो लेने छियनि । साहित्य अकादेमीसँ द्वैमासिक जर्नल Indian Literature छपै छै । ताहिमे पहिने प्रतिवर्ष सित.-अक्टू.अंकमे स्वीकृत सभ भाषाक विगत सालक साहित्य-प्रकाशनक वार्षिक सर्वेक्षण छपै छलै । 1980 सँ 87 धरि आठ साल लगातार ओ सर्वेक्षण हमरे लिख' पड़ल । ताहिमे एक सालक हमर लिखल सर्वेक्षणक अङरेजी अनुवाद, हमर कहलापर, ई सहर्ष क' देने रहथि ।

बाल्ट बिटमनक कविताक अनुवाद 'ई थिक जीवन' ककरो दिया हमरा पठबा देने रहथि । तकर मास दुइए-तिनिएक बाद हठात् एक दिन प्रो. चन्द्रशेखर झा आजादजी (जगदीश नन्दन कालेज, मधुबनीमे अङरेजीक अवकाशप्राप्त प्रोफेसर)क संग दरभंगा डेरापर अयला आ गाममे एहि पोथीक लोकार्पणक सूचना दैत अवश्य ऐबाक आग्रह कैलनि । हिनक श्रद्धा-प्रेमक आगाँ ई नहि कहल भेल जे ओही दिन मधुबनीमे एक विमोचने समारोहमे हम पूर्वस्वीकृति द' चुकल छिऐ । बादमे अजित आजादजीसँ क्षमा मङैत हुनका जखन हम अपन वादा तोड़बाक सूचना देलियनि तँ कने ओ अवश्य दुखी भेला, मुदा हमर अपरिहार्य सम्बद्धताक आगाँ प्रतिबद्धता-भंगकेँ हुनको स्वीकार करहि पड़लनि । गामक ओ लोकार्पण समारोह, जे हिनक घरक निकटस्थ लक्ष्मीनारायण मन्दिरक सोझाँमे शताधिक प्रबुद्ध गौआँक उपस्थितिमे सफलतापूर्वक आयोजित भेलनि, तकर सन्तोष बहुत दिनधरि व्यक्त करैत रहला– अनेक बेर मोबाइलोपर । सोझाँमे व्यक्त करबा काल हिनक आन्तरिक हर्ष मुँहपर तेहन आकर्षक आभा आनि दै छलनि जे देखितहि बनै छल । अनेक बेर कहने हेता– भाइ, आब अपन सभ पोथीक लोकार्पण गामेमे करब ।

सिद्ध कविक बात फूसि हो नहि । आत्मा मरय नहि । अबस्स हुनक बात सत्त भ'क' रहत । लक्ष्मीनारायण साक्षी छथिन । भद्रकाली अपन एहि सन्तानकेँ अनत' जाय कोना देथिन ?

अन्तिम भेट पटनामे भेल छल । ओ प्रबोध साहित्य सम्मान ग्रहण करबा लेल आयल रहथि । हमहूँ खास क' ओही अवसरक साक्षी बनबा ले' गेल रही । ओहि दिन सभामे अयला तखन, मंचपरसँ उतरला तखन, एवं जयबा लेल कारमे बैसबासँ पहिने– तीन बेर प्रणाम कैलनि । चकित तँ भैलौं, मुदा कोना तखन बुझितिऐ जे ओ 'अन्तिम प्रणाम' क' रहल छला ?

कोनो प्रसंगमे हुनकापर आठ पाँती ई लिखने रही—

हरेकृष्ण झा कविक नाम नहि– थिक ई रेखा
काव्य-फलकपर खिचल नव्यतम, होइछ लेखा
जै मिथिलाक चित्र खिचि यात्री दिशा देखौलनि
'एना त नहि जे' ई कवि तकर मोड़पर अनलनि
आ कि मोड़ टपि बना देल अछि स्वयं बाट नव?
समकालीन काव्यमे मीलक पाथर अभिनव
आइ ठाढ़ भय ततय निहारी अपन भव्यता
सनातनी भू पर भावक, भाषाक नव्यता ।

एकरा प्रो. मुरारि मधुसूदन ठाकुर एना अङरेजीमे क' देलथिन—

It's not a port's name —
Harekrishna Jha —
It represents a line drawn
On Poetry's Horizon — the newest!

You, O Poet, have brought
To a turning point
In the direction, Yaatri showed,
When he painted Mithila's picture.
Or did you perhaps go beyond
To carve out a path for yourself,
Becoming indeed a milestone
In the journey
Of contemporary poetry ?
We stand today
Watching in you the rise of an idiom new,
With content all new on the very ground
Of our timeless tradition !
(25. 04. 2022)

प्रो. भीमनाथ झा

Post a Comment

0 Comments