ओ क्षण — भीमनाथ झा

 (गुरुवर आचार्य रमानाथ झाक जन्मदिवसक अवसरपर समर्पित ई संस्मरणांजलि )


आचार्य रमानाथ झाक प्रथम दर्शन भेल छल 1960 मे रामकृष्ण कॉलेजक सप्ताहव्यापी वार्षिकोत्सवक अवसरपर । पहिले दिन, तीन जनवरीकें पहिल आ कि दोसर सत्रमे कालेज मैथिली साहित्य परिषदक सम्मेलन छलैक । पोर्टिकोक ओसारा छलैक मंच । मंचपर तीनटा विशिष्ट कुर्सी, तकर आगाँ सुसज्ज टेबुल । नीचाँमे पाँच-छौ पतियानी कुर्सी प्रोफेसर लोकनि लेल, तकर पाछाँ अनेक पतियानी बेंच विद्यार्थी सभक हेतु । सभ कुर्सी भरल, बेंच कसमकस । अगल-बगल सैकड़ो छात्र ठाढ़ो । हम आगुएक बेंचपर सीट हथिया लेने रही । समयपर प्रिंसिपलक चैम्बरसँ मंद-मंद गतियें तीन गोटेकें अबैत देखलियनि । प्रिंसिपल साहेब (प्रो. ए. के.दत्त) अपनहुँ भारी-भरकम रहथि । हुनक समानान्तर चलैत हुनके सन भारी-भरकम धोती-कुर्ता-कोटपर उज्जर दपदप पैघ तौनी, जकर एक छोर बामा कान्हपर आगाँ लटकल आ दोसर छोर दहिना काँख तरसँ पुनः बामा कान्हपर होइत पीठ दिस खसल, धारण कयने आचार्य रमानाथ झा । हाथमे रहनि चमड़ाक पैघ सन भरल बैग । हुनक पाछाँ रहथिन प्रो. जयधारी सिंह प्रभाकर । मंचपर बीचमे विराजमान भेलाह रमानाथ बाबू । दहिन दिस प्रिंसिपल साहेब, बाम दिस जयधारी बाबू । सभा शान्त । प्रारम्भिक औपचारिकताक क्रम नहि मन अछि । माल्यार्पण, स्वागतगान भेलैक । स्वागत-भाषण प्रिंसिपल साहेब कयलथिन-- मैथिलीमे, नातिदीर्घ । झलफल स्मृतिमे अबैत अछि से ई जे ओ रमानाथ बाबूक संग अपन प्रगाढ़ मित्रताक चर्चा कयलथिन । पश्चात् , कालेज मैथिली साहित्य परिषदक अध्यक्ष जयधारी बाबू मुख्य अतिथिसँ व्याख्यान देबाक अनुरोध कयलथिन । रमानाथ बाबू चमड़ाक बैगसँ भरिगर कागतक पुलिंदा बाहर कयलनि आ ठाढ़ भेलाह । पहिले-पहिल हुनक स्वर सुनलियनि---एकदम सधल, सुपुष्ट, सुस्पष्ट, सुस्थिरेँ कानमे अबैत आ सोझे मनमे उतरि जाइत । बड़ी काल बजलथिन, मुदा कथी ले' क्यो कनेको उकस-पाकस करत ! पहिले दर्शनमे हुनक विराट व्यक्तित्व आ बुलन्द आवाजक अमिट छाप पड़ि गेल ।
नाम तँ हुनक स्कूलेमे सुनने-पढ़ने छलियनि । 'मैथिली साहित्य संग्रह' (गद्य-पद्य दूनू भाग)क सम्पादकमे हुनक नाम छलनि । म.म.डॉ. सर गंगानाथ झाक जीवनी गद्य-भागमे हुनक पढ़ल छल । आइ.ए. मे मैथिली क्लासमे हुनक चर्चा बेसी सुनियनि । हुनक 'कविता-कुसुम' पाठ्यग्रन्थमे छल । कोनो कवि वा लेखकक परिचयमे हुनक मन्तव्य रटैत रही । तेँ, हुनक नामक ओजन तँ बुझ' लागल रहियनि पूर्वेसँ । ओहि दिन कायाक ओजन दहसति मे बदलि देलक । ताहिपर हुनक वाणीक भारीपन तथा भाषणक गुरुगम्भीरता तकरा आर गाढ़ क' गेल । अज्ञात भय पैसि गेल मानू ! ओ पूरा भाषण बादमे 'मधुबनीक छात्रसँ' शीर्षकसँ प्रो. नरनाथ झा-सम्पादित 'विविध प्रबन्ध' मे अयलनि । पश्चात् , 2010 मे 'आचार्य रमानाथ झा रचनावली'क तेसर खण्डमे संकलित छनि । तत्काल एते ऊहि कत', मुदा बादमे कैक बेर तकरा पढ़लहुँ । ओ ऐतिहासिक भाषण थिकनि हुनक । से प्रत्यक्ष सुनबाक सौभाग्य पौने छी ततबे नहि, ओकर शीर्षक 'मधुबनीक छात्रसँ' जकरा ओ सम्बोधित कयने रहथिन, ताहिमे एक जन हम अपनहुँकें मानैत छी। हमहूँ तहिया आइ. ए. द्वितीय वर्षक छात्र रही ।
बी.ए. मे संयोगसँ सी.एम.कॉलेजमे नाम लिखा लेलहुँ । रॉल नम्बर 215 छल । अंगरेजी क्लासमे बी सेक्शन भेटल । रमानाथ बाबू सेहो प्रोफेसर रहथि तहिया अंगरेजिएक । हमर सेक्शनमे थोमस हार्डीक उपन्यास 'द ऊडलेंडर्स' पढबथिन । प्रोफेसर तँ अंगरेजी विभागमे भरिसक दर्जनसँ ऊपरे रहथि, प्रोस्पेक्टसमे हिनक नाम विभागक सिरियलमे आधाक बादे रहनि, मुदा 'नाम' हिनकर भरि कॉलेजमे किनकोसँ नीचाँ रहनि , से हमरा तँ नहि लागल कखनो । कोनो विभागक कोनो प्रोफेसर हिनक सम्माने करथिन, सभ हिनक स्नेहभाजने बन' चाहथि, बनलो रहथि । आ छात्र ! ककर दर्प छलै जे हिनका सोझाँ सोझ भ'क' चल जाइत ? ककरो किछु कहैत कहियो नहि सुनलियनि । बजबो करथिन क्वचिते । मुदा हिनक ताकब ? विद्यार्थीकें बुझि पड़ैक जेना महादेव तेसर आँखि खोलि देने होथि ! हम तँ दुनू वर्ष छीहे कटैत रहलियनि हिनक । मुदा, क्लासमे कोन उपाय ? सकदम हम की, सौंसे क्लासे रहैत छलैक । चैनसँ रॉल कॉल करथिन । पढबथिन तँ उच्चरित प्रत्येक शब्दकेँ जेना खोलिक' राखि देथिन ! हमर पकड़मे तँ बात हुनक कम आबय, मुदा ओ बुलन्द ध्वनि कानमे बड़ी काल धरि गुँजैत रहय । जँ-जँ मैथिलीमे रमल जाइ तँ-तँ हुनक धाह आर तेजे बुझाय आ हम दूर घुसकल जाइ । मुदा ई बराबरि होइत रहल जे कमसँ कम एक बेर हुनका प्रणाम क' लितियनि, एक बेर ओ टोकि दितथि! मुदा हुनका लग जयबाक साहस कत' ? सभा-समारोहोमे कहियो कतहु ई साहस नहि जुटा सकलहुँ हम ।

1968 मे पहिल पोथी 'त्रिधारा' छपल । ताहि समयमे हम कुशेश्वरस्थान ब्लॉकमे कॉपरेटिव सुपरवाइजर रही । कलकत्तासँ पोथी आयल तँ दस-पन्द्रह प्रति ल'क' दरभंगा गेलहुँ । गुरुवर लोकनि--- सुमनजी, शैलेन्द्र बाबू, नवीन बाबू एवं आदरणीय साहित्यकार लोकनि--- श्री अमरजी, सोमदेवजी, रमानन्द रेणुजी, रामदेव बाबू, मिहिरजी प्रभृतिकेँ द' अयलियनि । इच्छा भेल, कहुना रमानाथ बाबू लग ई पहुँचि जैतनि ! मुदा पहुँचतनि कोना ? अपने जाइ ? साहस तँ नहि होइए । पचास बेर सोचलहुँ । हँ-नहि होइत रहल । एक बेर मूड़ी झाड़ि, हाथ फनकाक' बजलहुँ (मनेमन नहि, मुँह खोलिक', एकसरेमे)---की करता ? बाघ तँ नहि छथि जे गीडि लेता ! नहि भेट देता तँ घुरि आयब । मारता तँ नहि । जँ मारबो करता तँ सहि लेब । जायब जरूर । विदा भेलहुँ ।
बेरुका तीनक अमल छलैक । डेनबी रोडमे दक्षिण दिस, 9 नम्बर हातामे हुनक डेरा छलनि । देखल तँ छले । गेट खोलिक' भीतर गेलहुँ । बड़का कम्पाउंड । मकानक सीढ़ी लग ठाढ़ भेलहुँ । बाहरमे क्यो कतहु नहि । दू-चारि मिनटक बाद एक आठ-दस वर्षक नेना पछबरिया कोठलीसँ बहरयलाह । हम स्वाभाविक स्वरमे पुछलियनि--- 'श्रीमान् छथिन ?' ओ तुरत अपन मुहँपर तर्जनी(आँगुर) राखि चुप रहबाक इशारा कयलनि । फेर पुबरिया कोठली दिस इंगित करैत आंगुर देखौलनि आ अपन भीतर चल गेलाह । हम ठाढ़े रहलहुँ । कखनोक' हुनक अस्पष्ट आवाज सेहो आबय । बुझायल, ककरोसँ गप करैत छथि । बरंडापर बैंच रहैक । साहस क' ऊपर गेलहुँ आ बैसि रहलहुँ । एतबा तँ पक्का भइए गेल जे भीतरमे छथि, कखनो तँ बहरयबे करताह । लगभग 15-20 मिनटक बाद खड़ामक खट-खट सुनायल । एक गोटाक संग हुनका बहराइत देखलियनि । आगन्तुक बाबाजी सन लगलाह । हम ठामहि ठाढ़ भ' गेलहुँ । ओ हुनका संग सीढ़ी धरि गेलथिन । दू-चारि शब्द दुनू गोटे ओतहु गप कयलनि आ बाबाजी(सन व्यक्ति) नीचाँ उतरि बिदा भ' गेलाह । रमानाथ बाबू अपन कोठली दिस घुमलाह । तत्काल हम सोचलहुँ जे आब जँ ई कोठली चल जयताह, तखन तँ हम बैसले रहि जायब । बेसी विचारबाक क्षण नहि छल । हम विद्युत् गतिसँ चलि हुनका लग ठाढ़ भ' गेलहुँ । ओहो अँटकि गेलाह । हम हुनका प्रणाम कयलियनि । ओ हुंकारी देलनि--- हूँऊँऊँ …
हम अनुमान कयलहुँ, पुछैत छथि, के छी अहाँ ? कहलियनि--- हमर नाम भीमनाथ झा थिक । हम चुप। ।
दोसर हुंकार । हम बुझलहुँ--- परिचय पूछ' चाहैत छथि । कहलियनि--- हमर घर कोइलख थिक । हम अपनेक छात्र छी । चुप ।
फेर तेसर हुंकार । हम बुझलहुँ--- अयबाक प्रयोजन पुछैत छथि । कहलियनि--- कविता सेहो किछु-किछु लिखबाक प्रयास करैत छी । एम्हर एकटा संग्रहो छपल अछि । चुप ।
आब चारिम हुंकार । हम बुझलहुँ-- पुछैत छथि जे हमरा की कहैत छी ? कहलियनि--- साहस तँ नहि होइत छल, मुदा मनोरथ अछि जे ई अपनेक सेवामे अर्पित करी । एतबा कहैत पोथी बढ़ा देलियनि । पोथी ओ ल' लेलनि आ बामा हाथे पकड़ि दाहिना हाथसँ एक्के बेर आदिसँ अन्त धरिक पन्नाकें फडफड़ा देलथिन ।
पुनि पाँचम हुंकार । हम बुझलहुँ जे कहैत छथि, वेश जाउ । कहलियनि--- हम अब चलैत छी । ई कहि पुनः प्रणाम कयलियनि । हम पाछाँ मुहें सीढ़ी लग अयलहुँ आ ओ खड़ाम खटखटबैत भीतर गेलाह ।
ओत'सँ गेट रहैक दूर । ओ भीतर गेलाह कि हम पयरकेँ झटकारैत गेट दिस बढलहुँ । दू-तीन बेर मुड़िक' पाछाँ तकलिऐक । एतेक दहसति जे होअय क्यो खेहार' ले' तँ ने अबैत अछि ! गेट खोलि सड़कपर अयलहुँ तँ प्रानमे प्रान आयल । भेल जे आइ अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कयलहुँ अछि ।

तकर गोटेके सप्ताहक बाद गामक पतासँ एकटा पोस्टकार्ड भेटल । ओ रमानाथ बाबूक छल । लिखने रहथि---
नमस्कार !
'त्रिधारा' भेटल । पढ़ल । बड़ सुन्दर लागल । दू गोट महाकविक कविताबद्ध प्रशंसाक समक्ष हमरा किछु कहबाक ने प्रयोजन अछि आ ने क्षमता । लोकमे पोथीक आदर हो, तथा से होएत ।
इति ।
भवदीय
श्रीरमानाथझा


ओ क्षण हमर साहित्यिक जीवनक सभसँ सुखद क्षण छल, गौरवपूर्ण क्षण । ओ दुर्लभ क्षण आइयो ओहिना जीवन्त अछि मनमे । सभ दिन रहत ।

प्रो. भीमनाथ झा

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